नागपुर के चश्मा बाबा

शेष नारायण सिंह

शुक्रवार को आरएसएस के प्रमुख मोहन भागवत की प्रेस कांफ्रेंस को सुनते हुए, मुझे चश्मा बाबा की बहुत याद आई। लगा कि हिंदुत्व कर राजनीति की झंडाबरदार पार्टी में लगी आग को बुझाने के लिए नागपुर का बुजुर्ग अपना लोटा लेकर दौड़ पड़ा है। आग लगने से न तो खलिहान में कुछ बचता है और न ही राजनीतिक पार्टी में लेकिन संघ की कोशिश है कि अपनी राजनीतिक शाखा को बचा लिया जाय, ठीक वैसे ही जैसे मेरे गांव के बुजुर्ग बचाने की कोशिश करते थे।

मेरे गांव में एक चश्मा बाबा थे। नाम कुछ और था लेकिन चश्मा लगाते थे इसलिए उनका नाम यही हो गया था। सन् 1968 में जब उनकी मृत्यु हुई तो उम्र निश्चित रूप से 90 साल के पार रही होगी। बहुत कमजोर हो गए थे, चलना फिरना भी मुश्किल हो गया था। उनके अपने नाती पोते खुशहाल थे, गांव में सबसे संपन्न परिवार था उनका। सारे गांव को अपना परिवार मानते थे, सबकी शादी गमी में मौजूद रहते थे। आमतौर पर गांव की राजनीति में दखल नहीं देते थे। लेकिन अगर कभी ऐसी नौबत आती कि गांव में लाठी चल जायेगी या और किसी कारण से लोग अपने आप को तबाह करने के रास्ते पर चल पड़े हैं तो वे दखल देते थे, और शांत करने की कोशिश करते थे। अगर किसी के घर या खलिहान में आग लग जाती तो अपना पीतल का लोटा लेकर चल पड़ते थे, आग बुझाने। धीरे-धीरे चलते थे, बुढ़ापे की वजह से चलने में दिक्कत होने लगी थी लेकिन आग बुझाने का उनका इरादा दुनिया को जाहिर हो जाता था।

अब जब बीजेपी अपने अस्तित्व के सबसे मुश्किल दौर से गुजर रही है तो समकालीन राजनीति के इतिहास के विद्यार्थी को इसकी पड़ताल कर लेनी चाहिए। 1925 में जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना हुई तो राजनीतिक उद्देश्य नहीं तय किये गए थे, सांस्कृतिक रूप से सक्रिय रहकर समाज में अपना योगदान देना था। हिंदू महासभा में वी.डी. सावरकर के सक्रिय होने के बाद, आरएसएस ने उनको महत्व देना शुरू किया लेकिन 1920 से 1947 तक के भारत का इतिहास महात्मा गांधी के पौरुष का इतिहास है, गांधी की आंधी थी जिसमें कोई नहीं टिक पा रहा था। जो गांधी के साथ हो गया, वह नेता हो गया और जो उनके विरोध में हुआ वह इतिहास के हाशिए पर आ गया। हिंदू महासभा को भी कोई खास चुनावी सफलता नहीं मिली और अंत तो उनका बहुत ही अपमान के साथ हुआ। उसके बड़े नेताओं पर महात्मा गांधी की हत्या का आरोप लगा। यहां तक कि उस मुकदमे में आरएसएस के मुखिया गोलवलकर भी पकड़े गए थे। बहरहाल आरएसएस ने हिंदू महासभा से पल्ला झाड़ लिया और 1951 में जनसंघ को अपना लिया।

जनसंघ भी कोई राजनीतिक हैसियत नहीं बना पाई। उत्तर प्रदेश के कुछ राज्यों में संविद सरकार का हिस्सा बनी लेकिन 1971 में इंदिरा गांधी के गरीबी हटाओ वाले बुलडोजर में दबकर फिर मामूली पार्टी बन गई। 77 में जनता पार्टी में मिलकर जनसंघ का अस्तित्व समाप्त हुआ। हिंदुत्व की राजनीति फिर डांवाडोल थी। 1980 और 84 के लोकसभा चुनावों में गांधीवादी समाजवाद की नैया पर बैठी भारतीय जनता पार्टी को चुनाव में बहुत कम सीट ही मिलती रही। खीझकर पार्टी ने 1985 में आक्रामक हिंदुत्व का एजेंडा तय किया। 1966 में बनाई गई विश्व हिंदू परिषद को झाड़ फूंक कर निकाला गया, बजरंग दल तैयार किया और अयोध्या की एक पुरानी मस्जिद को राम जन्मभूमि बताकर आक्रामक हिंदुत्व की योजना पर काम शुरू हो गया। कोशिश तो यहां तक की गई कि हिंदू धर्म को एक राजनीतिक धर्म बनाया जाय। यह तो नहीं हो सका लेकिन मुस्लिम विरोध की राजनीति करके कुछ राज्यों और केंद्र की सत्ता में भागीदारी का कार्यक्रम सफलतापूर्वक लागू हो गया।

सत्ता में आने के साथ-साथ बीजेपी में वे सारी कमियां आने लगीं जिनका विरोध करना उनकी राजनीतिक अस्मिता की पहचान थी। उग्र मानसिकता के कम शिक्षित लोग राजनीतिक फैसले लेने लगे। बीजेपी और आरएसएस के बड़े नेताओं ने बार-बार कहा कि पार्टी का कांग्रेसीकरण हो गया है लेकिन कुछ कर नहीं सके। पार्टी के नेता और कार्यकर्ता रुपये पैसे की चमक धमक में डूबते गए, धुर राजनीतिक विरोधियों को साथ लेकर राजनीतिक सत्ता का भोग करते रहे। 65 करोड़ की बोफोर्स दलाली का विरोध करके 89 में मजबूती हासिल करने वाली पार्टी के नेता और मंत्री तरह तरह के चोरी और बेईमानी के मामले में नामजद होते रहे। पार्टी का बंगारुकरण हो गया।

2004 में केंद्र की सत्ता से बेदखल होने के पहले तक बीजेपी की मंसूबाबंदी बहुत दिन तक राज करने की थी लेकिन चुनाव में जरूरी सीटें नहीं मिली और पैदल हो गए। लेकिन इस उम्मीद में कि पांच साल बाद नंबर आ जाएगा, लोग जुटे रहे। 2009 की हार ने बीजेपी को ज़बरदस्त धक्का दिया और सत्ता की राजनीति के प्रेमी नेता लोग, डूबती नैया छोड़कर भागने लगे। कारवां तो लुट गया लेकिन रहबर की नीयत पर सवाल उठने लगे। विवादों का ऐसा माहौल खड़ा हो गया कि बीजेपी के सबसे बड़ नेता लालकृष्ण आडवाणी बिलकुल बौने लगने लगे। उन पर झूठ बोलने के आरोप लगभग सिद्ध हो चुके हैं। ऐसी हालत में बीजेपी के छिन्न भिन्न होने की संभाावना एक सच्चाई बन चुकी है। अब लगता है कि राजनीतिक पार्टी के रास्ते हिंदू राष्ट्र स्थापित कर पाने का आरएसएस का समना चकनाचूर हो चुका है। आरएसएस के प्रमुख मोहन भागवत की शुक्रवार को दिल्ली में हुई प्रेस वार्ता एक ऐसी पार्टी को बचाने की कोशिश है जो ढलान पर चल पड़ी है और किसी भी वक्त ठीक उसी मुकाम पर पहुंच सकती है, जहां 1978 मेें जनता पार्टी और 80 के दशक में लोकदल पहुंची थी।

राजनीति संभावनाओं का दौर है। देखना यह है कि नागपुर का चश्मा बाबा अपने राजनीतिक कुनबे को बचाने में कहां तक सफल होता है, वैसे खलिहान में जब आग लग जाती है तो बचता कुछ नहीं है।

(शेष नारायण सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं. संपर्कः sheshji@gmail.com)

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