शेष नारायण सिंह
एक मशहूर फिल्मी गीत है- तुम्हीं ने दर्द दिया है, तुम्हीं दवा देना। भला जो दर्द दे रहा है, अगर उसे दवा देना है तो वह दर्द ही क्यों देगा? यह गीत अपने जमाने में बहुत हिट हुआ था। असल जिंदगी में भी कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि जो तकलीफ देता है, वह पछताता है और मरहम लगाने पहुंच जाता है लेकिन सियासत में ऐसा नहीं होता। राजनीति में जो दर्द देता है वह अगर दवा देने की कोशिश करता है तो उसे व्यंग्य माना जाता है।
इसलिए जब राजस्थान की यात्रा पर गए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि बीजेपी की अस्थिरता लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है तो बात का अलग असर हुआ। उनका कहना था कि मजबूत लोकतंत्र के लिए सभी राजनीतिक पार्टियों में स्थिरता होनी चाहिए। बात तो ठीक थी। कहीं कोई गलती नहीं है लेकिन बीजेपी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह बुरा मान गए। उन्होंन प्रधानमंत्री को एक चिट्ठी लिख दी कि भाई, आप अपना काम देखिए देश में सूखा पड़ा है, उसको संभालिए, हमारी चिंता छोड़ दीजिए। बीजेपी अपने गठन के बाद से सबसे कठिन दौर से गुजर रही है, उसके शीर्ष नेतृत्व में विश्वास का संकट चल रहा है, कौन किसको कब हमले की जद में ले लेगा, बता पाना मुश्किल है। तिकड़म के हर समीकरण पर मैकबेथ की मानसिकता हावी है सभी एक दूसरे पर शक कर रहे हैं। ऐसी हालत में प्रधानमंत्री की बीजेपी का शुभचिंतक बनने की कोशिश, राजनाथ सिंह को अच्छी नहीं लगी। शायद उनको लगा कि मनमोहन सिंह ताने की भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं और वे नाराज हो गए। उनकी पार्टी के प्रवक्ता ने इस घटना को अपनी रूटीन प्रेस कान्फ्रेंस में भी बताया और टीवी चैनलों ने इस को दिन भर चलाया और मजा लिया। ज़ाहिर है कि खबर में जितना रस था सब बाहर आ चुका है और बीजेपी का मीडिया चित्रण एक खिसियानी बिल्ली का हो चुका है जो कभी कभार खंबे वगैरह भी नोच लेती है।
सवाल यह उठता है कि बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और पार्टी प्रवक्ता ने मनमोहन सिंह के उस मामूली से बयान को इतना संवेदनशील क्यों मान लिया। जहां उन्होंने यह बयान दिया था उसी प्रेस कानफ्रेंस में उनसे कंधार और जसवंत सिंह के आडवाणी के झूठ बोलने के आरोपों पर भी सवाल पूछे गए थे जिनको उन्होंने टाल दिया। लगता है, प्रधानमंत्री मुश्किल के दौर से गुजर रही बीजेपी का मज़ाक उड़ाना नहीं चाहते थे। क्योंकि अगर उनका इरादा ऐसा होता तो आडवाणी और कंधार प्रकरण पर ही कुछ चोट पहुंचाने वाली बात कह देते। इन मुद्दों पर बीजेपी खुद रक्षात्मक मुद्रा में है और मीडिया इससे जुड़ी किसी भी खबर को लपक ले रहा है। ज़ाहिर है कि प्रधानमंत्री की नीयत पर शक करना ठीक नहीं है। लेकिन बीजेपी की स्थिरता की बात करके प्रधानमंत्री ने जले पर नमक छिड़का, कम से कम बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष यही मानते हैं। और उन्होंने प्रधानमंत्री के बयान पर तीखी प्रतिक्रिया दे दी। एक मामूली सी बात पर गुस्सा वही होते हैं जो बहुत परेशान होते हैं। इस बारीकी को समझने के लिए मनोविज्ञान का जानकार होने की ज़रूरत है।
हम मनोविज्ञान नहीं जानते इसलिए हम इस बात को राजनीति के व्याकरण से समझने की कोशिश करेंगे। डा. राही मासूम रज़ा के कालजयी उपन्यास क्वआधा गांवं में गाजीपुर जिले के गंगौली गांव का ज़िक्र है। उपन्यास आज़ादी से पहले के 30 और 40 के दशक से होता हुआ 50 के दशक में प्रवेश करता है। गंगौली उस दौर में वहां के ज़मींदार सैय्यदों का गांव था। ज़मींदारों के सामंती संस्कार थे, ऊंच नीच, जात पांत की बातें आम थीं। खानदान के ही किसी व्यक्ति ने एक ऐसी महिला से शादी कर ली जो पहले रहमान नाम के आदमी की पत्नी थी और अलग हो गई थी। गंगौली के ज़मीदारों के परिवार में शादी के बाद परिवार ने उसे अपने परिवार में स्वीकार नहीं किया, उस महिला को पूरा खानदान रहमान बो (रहमान की पत्नी) कह कर ही संबोधित करता रहा। उनको लगता था कि उस मामूली औरत ने इनके खानदान में शादी करके ऐसा काम किया है, जो उसे नहीं करना चाहिए था। सभी मानते थे कि उसने घुसपैठ किया है। लगता है बीजेपी वाले भी डा. मनमोहन सिंह को घुसपैठिया मानते हैं। और उनकी किसी भी बात को छोटे मुंह बड़ी बात कहकर टालने के चक्कर में रहते हैं। इसीलिए लोकतंत्र के लिए ज़रूरी राजनीतिक पार्टियों की स्थिरता की बात पर बहुत नाराज हो गए। राजनाथ सिंह की इस प्रतिक्रिया को समझने के लिए बीजेपी के पिछले पांच साल के उन बयानों पर गौर करना ज़रूरी है जो उसने मनमोहन सिंह के बारे में दिए हैं।
बीजेपी आज भी मानती है कि मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहिए क्योंकि वह सीट तो बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार की है। जब 2004 में बीजेपी वालों की धमकी से डरकर सोनिया गांधी ने मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री पद पर बैठाया था, तबसे लालकृष्ण आडवाणी और उनके साथी संगती उन्हें कमजोर प्रधानमंत्री कहते आए हैं। 2009 के चुनाव तक आडवाणी और उनकी पार्टी को विश्वास था कि अगर कांग्रेस जीत भी गई तो भी प्रधानमंत्री पद पर तो मनमोहन सिंह नहीं बैठेंगे। लेकिन उनकी हर उम्मीद गलत निकली। मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री हैं अब बीजेपी में सभी मानते हैं कि उनको कमजोर कहना रणनीतिक गलती थी। इस पृष्ठभूमि में अगर बीजेपी की सिरफुटौव्वल को देखा जाये तो राजनाथ सिंह की चिट्ठी का मर्म समझ में आ जाएगा क्योंकि बीजेपी जैसी पवित्र राजनीतिक पार्टी वाले अभी भी मनमोहन सिंह को सत्ता की दावेदारी की राजनीति का घुसपैठिया मानते हैं, रहमान बो मानते हैं। सामंती मानसिकता, को समझने वाला कोई भी व्यक्ति बता देगा कि बड़े लोग छोटे लोगों को मुंह नहीं लगाते, किसी रहमान बो से उपदेश नहीं सुनते। यही बीजेपी के बड़े नेताओं की विडंबना है। वे मनमोहन सिंह को स्वीकार करने को भी तैयार नहीं है और अब उनको चुनौती देने की हैसियत भी गंवा रहे हैं क्योंकि इतने मतभेद के बाद बीजेपी अगर एक पार्टी के रूप में बच भी जाती है तो किसी को राजनीतिक चुनौती देने की स्थिति में तो बहुत बाद में ही आ सकेगी।
Courtesy:
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