विश्‍वास का धंधा

♦ प्रमोद रंजन


‘कानपुर में स्व नरेंद्र मोहन (दैनिक जागरण के मालिक) के नाम पर पुल का नामाकरण उस समय हुआ जब मैं उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री था। उनके मल्टीप्लैक्स को जमीन हमारे समय में दी गयी। जागरण का जो स्कूल चलता है और उनका जहां दफ्तर है उनकी जमीनें हमारे समय में उन्हें मिलीं। लेकिन यह सब मैंने किसी अपेक्षा में नहीं अपना मित्र धर्म निभाते हुए किया। फिर भी मेरे साथ ऐसा व्यवहार (खबर के लिए पैसे की मांग) हुआ। इतनी निर्लज्जता से चलेंगे तो कैसे चलेंगे रिश्‍ते?’
- लालजी टंडन, लखनऊ से भाजपा के विजयी लोस प्रत्याशी


‘दैनिक जागरण के मालिक को हमने वोट देकर सांसद बनाया था। वे बताएं वोट के बदले उनने हमें कितना धन दिया था? तब खबर के लिए हम धन क्यों दें?’
- मोहन सिंह, देवरिया से सपा के पराजित लोस प्रत्याशी


‘मैंने उषा मार्टिन (प्रभात खबर को चलाने वाली कंपनी) को भी कठोतिया कोल ब्लॉक दिया। प्रभात खबर को यह बताना चाहिए कि उसकी शर्तें क्या थीं। मैंने उनसे कितने पैसे लिए?’
- मधु कोड़ा, झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री, चाईबासा से निर्दलीय सांसद


मीडिया पर चुनावों के दौरान पक्षपात के आरोप लगते रहे हैं। इस तरह के आरोप प्रायः चुनाव हार गये दल और प्रत्याशी लगाते हैं। या फिर दलित-पिछड़े नेताओं की ब्राह्मण-बनिया प्रेस से शिकायतें रही हैं। इस तरह की आपत्तियों को खिसियानी बिल्ली का प्रलाप मान कर नजरअंदाज कर दिया जाता है। लेकिन इस बार किस्सा कुछ अलग है। इस बार शिकायत उन नेताओं को भी है जो चुनाव जीत गये हैं। नाराज वे भी हैं, जो कुछ समय पहले तक इसी मीडिया के खास थे। कारण?


इसका कारण सीधा है। बनिया, ब्राह्मण पर भारी पड़ा है। जो काम रिश्‍तों के आधार पर होता रहा था, उसके लिए अब अचानक दाम मांगा जाने लगा है।


पुल तुम्हारे नाम किया, जमीन दी, जनता के वोट से विधान सभा में पहुंचे तो अपना वोट देकर तुम्हें राज्यसभा में भेजा। आजीवन मित्र धर्म निभाया। तब भी यह अहसानफरामोशी?


वास्तव में यह पहली बार नहीं था जब चुनाव के दौरान अखबारों ने पैसा लेकर खबर छापी हो। पहले यह पैसा पत्रकारों की जेब में जाता था। अखबारों के प्रबंधन ने धीरे-धीरे इसे संस्थागत रूप देना शुरू किया। ज्ञात तथ्यों के अनुसार, छत्तीसगढ़ में वर्ष 1997 के विधानसभा चुनाव से इसकी शुरुआत हिंदी के दो प्रमुख मीडिया समूहों ने की थी। उस चुनाव में 25 हजार रुपये का पैकेज प्रत्याशी के लिए तय किया गया था, जिसमें एक सप्ताह की दौरा-रिपोर्टिंग, तीन अलग-अलग दिन विज्ञापन के साथ मतदान वाले दिन प्रत्याशी का इंटरव्यू प्रकाशित करने का वादा शामिल था। उसके बाद के सालों में हिमाचल प्रदेश, पंजाब, चंडीगढ़, हरियाणा, राजस्थान आदि में चुनावों के दौरान यह संस्थागत भ्रष्‍टाचार पैर पसारता गया। उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राजनैतिक रूप से सचेत राज्यों में अखबारों को इस मामले में फूंक-फूंक कर कदम रखना पड़ा।


संस्थागत रूप (जिसमें पैसा सीधे प्रबंधन को जाता है) से उत्तरप्रदेश में अखबारों ने पहली बार उगाही वर्ष 2007 के विधानसभा चुनाव में की। वैश्विक आर्थिक मंदी के बीच वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में उगाही की यह प्रणाली बिहार पहुंची।


इस चुनाव में बिहार-झारखंड में हिंदुस्तान ने ‘बिकी हुई’ खबरों के नीचे ‘एचटी मीडिया इनिशिएटिव’ लिखा तो प्रभात खबर ने ‘पीके मीडिया इनिशिएटिव’। दैनिक जागरण ने बिकी हुई खबरों का फांट कुछ बदल दिया। (अस्पष्‍ट अर्थ वाले इन शब्दों अथवा बदले हुए फॉन्‍ट से पता नहीं वे पाठकों को धोखा देना चाहते थे या खुद को?)। इस सीधी वसूली पर कुछ प्रमुख नेताओं ने जब पैसे वसूलने वाले समाचार पत्रों के मालिकों से संपर्क किया तो उनका उत्तर था -जब हमारा संवाददाता उपहार या पैसे लेकर खबरें लिखता है तो हम (मालिक) ही सीधे धन क्यों नहीं ले सकते?


बिहार में बबेला


खबरों के लिए धन की इस संस्थागत उगाही पर बबेला बिहार से शुरू हुआ। इस जागरूकता के लिए बिहार की तारीफ की जानी चाहिए। यद्यपि इस पर संदेह के पर्याप्त कारण भी मौजूद हैं।

तथ्य यह है कि बिहार में दैनिक जागरण, हिंदुस्तान, प्रभात खबर आदि के पत्रकारों द्वारा चुनाव के दौरान स्थानीय स्तर पर वसूली के किस्से आम रहे हैं। झारखंड में तो अखबार चुनावों के दौरान अपना पुराना हिसाब भी चुकता करते रहे हैं। लेकिन ऊंचे तबके (ऊंची जाति/ऊंची शिक्षा/संपादकों से मित्र धर्म का निर्वाह करने वाले) राजनेताओं से अदना पत्रकार मोल-भाव की हिमाकत नहीं करते। इस कोटि के नेताओं का मीडिया मैनेजमेंट वरिष्‍ठ पत्रकार, स्थानीय संपादक आदि करते हैं जबकि मीडिया के उपहास, उपेक्षा और भेदभाव की पीड़ा पिछड़े राजनेताओं (नीची जाति/ कम शिक्षित/ गंवई) के हिस्से में रहती है।


लेकिन इस बार? अखबार मालिकों ने तो सब धान साढ़े बाइस पसेरी कर डाला। टके सेर भाजी, टके सेर खाजा!


विरोध का धंधा


इस अंधेर को प्रभात खबर के प्रधान संपादक हरिवंश ने ‘खबरों का धंधा’ कहा तो जनसत्ता के पूर्व संपादक प्रभाष जोशी ने ‘खबरों के पैकेज का काला धंधा’। जबकि प्रभात खबर भी इस मामले में शामिल था।


प्रभाष जोशी ने बांका जाकर जदयू के बागी, लोकसभा के निर्दलीय प्रत्याशी दिग्विजय सिंह के पक्ष में आयोजित जनसभा को संबोधित किया था। उनके साथ प्रभात खबर के प्रधान संपादक हरिवंश भी थे। बाद में श्री जोशी ने अपने लेख में दिग्विजय सिंह का ‘मीडिया प्रबंधन’ कर रहे एक पत्रकार की डायरी के हवाले से इस चुनाव में मीडिया के ‘पैकेज के काले धंधे की’ कठोर भर्त्‍सना की। जोशी का यह लेखकीय साहस प्रशंसनीय है किंतु उनके लेख में विस्तार से उद्धृत की गयी पत्रकार की डायरी कुछ ज्यादा भेदक प्रसंगों को भी सामने लाती है। श्री जोशी ने इस डायरी के हवाले से सिर्फ पैसों के लेन-देन की निंदा की। अन्य तथ्यों पर उन्होंने कोई ध्‍यान नहीं दिया।


श्री जोशी द्वारा कोट की गयी डायरी का अंश -

‘20 अप्रैल, 2009: आज एक प्रमुख दैनिक के स्थानीय प्रतिनिधि अपने विज्ञापन इंचार्ज के साथ आये। संवाददाता कह रहे थे – मैंने खबर भेजी थी, पर वहां एक जाति विशेष के संपादक हैं। छापेंगे नहीं। यानी पैकेज के बिना अखबार में खिड़की-दरवाजे नहीं खुलेंगे।’


‘21 अप्रैल, 2009: एक पत्रकार ने अपने स्थानीय संपादक को बताया कि उसकी खबरें छपनी क्यों जरूरी हैं। स्थानीय संपादक एक जाति विशेष का था और एक दबंग उम्मीदवार भी संपादक की जाति का था। इस पत्रकार ने संपादक को समझाया कि हमने उससे डील की तो जाति समीकरण बिगड़ सकता है। दूसरे उम्मीदवार जो मंत्री हैं, उनके बारे में कहा कि वे सरकारी विज्ञापन दिलवाते रहेंगे। उनसे क्या लेन-देन करना। दिल्ली में खूब पहचान रखनेवाले एक उम्मीदवार के बारे में कहा कि जब उनसे मिलने गया, तो वे फोन पर… (अखबार के मालिक से) बात कर रहे थे। उनसे क्या पैकेज लिया जाए।’


जाति, पद और परिचय पर आधारित पत्रकारिता का फर्रुखाबादी खेल उपरोक्त उद्धरणों में स्पष्‍ट है, जिसे पत्रकारिता पर जारी बहस के दौरान नज़रअंदाज़ कर दिया गया है। पत्रकारिता का यह पतन वैश्विक मंदी के कारण वर्ष 2009 में अचानक घटित होने वाली घटना नहीं है। जातिजीवी संपादक व पत्रकार इसे वर्षों इस ओर धकेलते रहे हैं। वस्तुतः पैकेज ने जातिजीवी संपादकों की मुट्ठी में कैद अखबारों के खिड़की-दरवाज़े सभी जाति के धनकुबेरों के लिए खोल दिये हैं। इसमें संदेह नहीं कि अखबारों का चुनावी पैकेज बेचना बुरा है। लेकिन अधिक बुरा है पत्रकारिता में जाति धर्म और मित्र धर्म का निर्वाह।


व्यावहारिक दृष्टि से देखा जाए तो…


चुनावों के दौरान खबरों की बिक्री पिछले लगभग एक दशक से चल रही है। इसने अखबारों की विश्‍वसनीयता गिरायी है। लेकिन पैसा लेकर छापी गयी खबर की बदौलत शायद ही किसी प्रत्याशी की जीत हुई हो। उत्तरप्रदेश में वर्ष 2007 के विधानसभा चुनाव में तीन समाचार पत्रों ने सरेआम धन लेकर खबर छापने का अभियान चलाया था और करोड़ों रुपये की अवैध उगाही की थी। समाचार पत्रों के जरिये अपनी छवि सुधारने वाले राजनीतिक दलों ने इन समाचार पत्रों को विज्ञापन देकर भी पैसा पानी की तरह बहाया। परंतु इनके चुनावी सर्वेक्षण व आकर्षक समाचार भी मतदाताओं का रुझान नहीं बदल सके और विज्ञापन पर सबसे कम धन खर्च करने वाली बहुजन समाज पार्टी को पूर्ण बहुमत मिल गया। अखबारों की विश्‍वसनीयता की हालत यह हो गयी कि प्रत्याशी अब पक्ष में खबर छापने के बजाय कोई खबर न छापने के लिए पैसे देने लगे हैं। बदनामी इतनी हो चुकी है कि पक्ष में खबर छपने पर मतदाताओं द्वारा ‘उलटा मतलब’ निकाले जाने की आशंका रहती है।


पत्रकारिता के मूल्यों में ऐसे भयावह क्षरण से नुकसान दलित, पिछड़ों की राजनैतिक ताकतों, वाम आंदोलनों तथा प्रतिरोध की उन शक्तियों को भी हुआ है, जो इसके प्रगतिशील तबके से नैतिक और वैचारिक समर्थन की उम्मीद करते हैं। मीडिया के ब्राह्मणवादी पूंजीवाद ने इन्हें उपेक्षित, अपमानित और बुरी तरह दिग्भ्रमित भी किया है। लेकिन मीडिया की गिरती विश्‍वसनीयता पर जाहिर की जा रही चिंता का कारण यह नहीं है। उन्हें चिंता है कि – ‘यदि मीडिया की ताकत ही नहीं रहेगी तो कोई अख़बार मालिक किसी सरकार को किसी तरह प्रभावित नहीं कर सकेगा। फिर उसे अखबार निकालने का क्या फायदा मिलेगा? यदि साख नष्‍ट हो गयी तो कौन सा सत्ताधारी नेता, अफसर या फिर व्यापारी मीडिया की परवाह करेगा? इसलिए व्यवहारिक दृष्टि से देखा जाए तो यह अखबार के संचालकों के हक में है कि छोटे-मोटे आर्थिक लाभ के लिए पैकेज पत्रकारिता को बढ़ावा न दें।’


व्यावहारिकता का यह तकाज़ा पूंजीवाद से मनुहार करता है कि वह ब्राह्मणवाद से गठजोड़ बनाये रखे। कौड़ी-दो-कौड़ी के लिए इस गठबंधन को नष्‍ट न करे। सलाह स्पष्‍ट है अगर हम पहले की तरह गलबहियां डाल चलते रहें तो ज़्यादा फायदे में रहेंगे। सरकार, अफसर, व्यापार सब रहेंगे हमारी मुट्ठी में। अभी लोकतंत्र की तूती बोल रही है। इसलिए वह क्षद्म बनाये रखना ज़रूरी है, जिससे बहुसंख्यक आबादी का विश्‍वास हम पर बना रहे। मीडिया की ‘विश्‍वसनीयता’ बनाये रखना इनके लिए ‘समय का तकाजा’ है।



(Pramod Ranjan could be contaced at pramodrnjn@gmail.com)

1 comments

  1. it is india which has committed more crimes than israil where more than millions of minorities are killed in more than 47000 thousand communal riots(official figure), pogrom and violence. a percentage which is more than as compare to any other country after 2nd world war. even violence against st-sc-obc are too much widespred and reality of day to day life. system of all sphere is totally collasped which makes india a complete failed state, even worst than pakistan & bangladesh. most of poor countries of third world even ranks up as compare to india in the index of human development. thus this country is hevan for manuvadis as well as hell for st-sc-obc &/minorities.

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