आरएसएस के एजेण्डे पर सरदार पटेल

शेष नारायण सिंह
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जसवंत सिंह की जिनाह वाली किताब ने और कुछ किया हो या न किया हो लेकिन एक मुद्दे को हमेशा के लिए दफन कर दिया। किताब में सरदार पटेल, नेहरू और जिनाह के हवाले से मुल्क के बंटवारे की जो तसवीर, जसवंत सिंह ने प्रस्तुत की, उसमें कुछ भी नया नहीं है, इतिहासकारों ने उसका बार बार विवेचन किया है। इस किताब का महत्व केवल यह है कि भाजपा और आर.एस.एस. की उन कोशिशों को लगाम लग गई कि सरदार पटेल की सहानुभूति आर.एस.एस. के साथ थी, क्योंकि अब ऐसे सैकड़ों सबूत एक बार फिर से अखबारों में छपने लगे हैं।

जिससे फिर साबित हो गया है कि सरदार पटेल आर.एस.एस. और उसके तत्कालीन मुखिया गोलवलकर को बिलकुल नापसंद करते थे। यहां तक कि गांधी जी की हत्या के मुकदमे के बाद गिरफ्तार किए गए एम.एस. गोलवलकर को सरदार पटेल ने तब रिहा किया जब उन्होंने एक अंडरटेकिंग दी कि आगे से वे और उनका संगठन हिंसा का रास्ता नहीं अपनाएंगे। उस अंडरटेकिंग के मुख्य बिंदु ये हैं:-आर.एस.एस. एक लिखित संविधान बनाएगा जो प्रकाशित किया जायेगा, हिंसा और रहस्यात्मकता को छोड़ना होगा, सांस्कृतिक काम तक ही सीमित रहेगा, भारत के संविधान और तिरंगे झंडे के प्रति वफादारी रखेगा और अपने संगठन का लोकतंत्रीकरण करेगा। (पटेल -ए-लाइफ पृष्ठ 497, लेखक राजमोहन गांधी प्रकाशक-नवजीवन पब्लिशिंग हाउस, 2001) आर.एस.एस. वाले अब इस अंडरटेकिंग को माफीनामा नहीं मानते लेकिन उन दिनों सब यही जानते थे कि गोलवलकर की रिहाई माफी मांगने के बाद ही हुई थी।

बहरहाल हम इसे अंडरटेकिंग ही कहेंगे। इस अंडरटेकिंग को देकर सरदार पटेल से रिहाई मांगने वाले संगठन का मुखिया यह दावा नहीं कर सकता कि सरदार उसके अपने बंदे थे। सरदार पटेल को अपनाने की कोशिशों को उस वक्त भी बड़ा झटका लगा जब लालकृष्ण आडवाणी गृहमंत्री बने और उन्होंने वे कागजात देखे जिसमें बहुत सारी ऐसी सूचनाएं दर्ज हैं जो अभी सार्वजनिक नहीं की गई है। जब 1947 में सरदार पटेल ने गृहमंत्री के रूप में काम करना शुरू किया तो उन्होंने कुछ लोगों की पहचान अंग्रेजों के मित्र के रूप में की थी। इसमें कम्युनिस्ट थे जो कि 1942 में अंग्रेजों के खैरख्वाह बन गए थे। पटेल इन्हें शक की निगाह से देखते थे। लिहाजा इन पर उनके विशेष आदेश पर इंटेलीजेंस ब्यूरो की ओर से सर्विलांस रखा जा रहा था। पूरे देश में बहुत सारे ऐसे लोग थे जिनकी अंग्रेज भक्ति की वजह से सरदार पटेल उन पर नजर रख रहे थे। कम्युनिस्टों के अलावा इसमें अंग्रेजों के वफादार राजे महाराजे थे। लेकिन सबसे बड़ी संख्या आर.एस.एस. वालों की थी, जो शक के घेरे में आए लोगों की कुल संख्या का 40 प्रतिशत थे। गौर करने की बात यह है कि महात्मा जी की हत्या के पहले ही, सरदार पटेल आर.एस.एस. को भरोसे लायक संगठन मानने को तैयार नहीं थे।

इसके अलावा भी सैकड़ों मिसालें अब सार्वजनिक बहस के दायरे में हैं इसलिए आर.एस.एस. और उसके मातहत संगठनों को अब सरदार पटेल की विरासत को अपनाने की कोशिश करने की हिम्मत पड़ेगी। सरदार पटेल को अपनाने की कोशिश करने के पहले संघ वाले सरदार भगत सिंह को विरासत की दावेदारी के चक्कर में भी थे। यहां तक कि सरदार भगत सिंह की शहादत की 76 वीं बरसी पर आर.एस.एस. के अखबार पांचजन्य ने अमर शहीद विशेषांक, रंग दे बसंती चोला निकाला और सरदार भगत सिंह को अपना हीरो बताने की कोशिश की लेकिन यह प्रयास भी बहुत कम वक्त तक चला जब यह साबित हो गया कि भगत सिंह तो हिंदुत्व की राजनीति के घोर विरोधी थे, आर.एस.एस. वालों को नापसंद करते थे और नौजवान भारत सभा के सदस्य थे जो कम्युनिस्ट पार्टी का एक संगठन था। संघ बिरादरी ने फौरन से पेशतर अपने आपको सरदार भगत सिंह से अलग कर लिया। इसी तरह की कोशिश महात्मा गांधी की बिरासत के साथ भी हो चुकी है। गांधी जी के नाम का तो इस्तेमाल यहां तक किया गया कि 1980 में बीजेपी ने अपने गठन के समय गांधीवादी समाजवाद को अपना सिद्धांत बता दिया। पूरी दुनिया में हाय तौबा मच गयी और गांधी जी की हत्या में हिंदुत्ववादी राजनीति के अकाट्य प्रमाण फिर एक बार अखबारों में छपे तब जाकर गांधीजी से दूरी बनी।

लेकिन लगता है कि आजादी की लड़ाई के महान नायकों में अपने बंदों की तलाश अब बंद हो चुकी है। क्योंकि आजादी की लड़ाई के 1920 से 1947 के दौर में आर.एस.एस. का कोई आदमी अंग्रेजों को नाराज करने में सफल नहीं हुआ। उनका कोई आदमी जेल में नहीं गया, हालांकि आर.एस.एस. वाले कहते हैं कि उनके संस्थापक डा. हेडगेवार एक बार जेल गए थे लेकिन वह आजादी की लड़ाई के लिए नहीं, वन सत्याग्रह के लिए जेल गए थे। दूसरे सरसंघ चालक गोलवलकर और मुसलिम लीग के मुहम्मद अली जिनाह कभी जेल नहीं गए, अंग्रेजों के शुभचिंतक और खास बंदे बने रहे। जिनाह तो अंग्रेजों के सबसे बड़े दुश्मन महात्मा गांधी की मुखालिफत करते रहे जबकि संघ वाले लगातार कहते रहे कि आजादी की लड़ाई सात सौ साल की गुलामी से मुक्ति के लिए लड़नी है। यानी उनकी भी लड़ाई अंग्रेजों के खिलाफ नहीं थी, वे उन लोगों के खिलाफ लड़ना चाहते थे जो 700 साल से देश पर काबिज थे। इसका इनाम अंग्रेजों ने यह दिया कि कांग्रेस के नेताओं को तो पकड़ पकड़कर जेलों में ठूंसते रहे लेकिन जिनाह और गोलवलकर के साथी कभी जेल नहीं गए।

आजादी की लड़ाई में शामिल महापुरुषों को अपनाने की लगातार नाकाम हो रही कोशिशों से अब संघ वाले भी ऊब गए लगते है। इस पृष्ठभूमि में एक नयी योजना से परतें उठना शुरू हो गयी हैं। महुआ न्यूज नाम के टीवी न्यूज चैनल में एक चर्चा के दौरान आर.एस.एस. के सदस्य, उनके अंग्रेजी साप्ताहिक आर्गनाइजर के पूर्व संपादक और संघ के सबसे बुद्धिमान लोगों में से एक शेषाद्रिचारी ने भारत की आजादी में शामिल पक्षों की एक नई व्याख्या प्रस्तुत की। उनका कहना था कि आजादी की लड़ाई में चार पक्ष थे। एक तो कांग्रेस, दूसरा ब्रिटिश साम्राज्य, तीसरा मुसलिम लीग और चौथा हिंदू समाज। उनका कहना था कि भारत का हिंदू समाज, कांग्रेस या महात्मा गांधी के साथ नहीं था। आज़ादी की लड़ाई और बंटवारे की बहस में यह नया आयाम जोड़ने की आर.एस.एस. की यह कोशिश, इतिहास के विद्यार्थी को हास्यास्पद और लाल बुझक्कड़ी लग सकती है लेकिन इस तर्क को हंसकर टाल देना आने वाली पीढ़ियों को मंहगा पड़ सकता है। इसलिए इस विचार पर फौरन गंभीर चर्चा शुरू करके आर.एस.एस. की इस नई योजना की सच्चाई दुनिया के सामने लाई जानी चाहिए।

आजादी की लड़ाई में शामिल महान नायकों में अपने लोगों की तलाश या आजादी के रणबांकुरों की विरासत को हथिया लेने की संघ की कोशिशें पिछले 30 साल से नाकाम होती रही हैं। केवल एक बार जयप्रकाश नारायण का आशीर्वाद इनको मिला था लेकिन वह आशीर्वाद भी एकमुश्त नहीं था, उसमें लोहियावादी गांधीवादी और अन्य समाजवादी भी बराबर के हकदार थे। इसलिए शायद अब आर.एस.एस. को लगता है कि यह कोशिश कोई नतीजा नहीं देगी। इसलिए हिंदू समाज को महात्मागांधी और कांग्रेस से अलग एक यूनिट के रूप में प्रस्तुत करने की योजना पर काम चल रहा है। यहां यह बात बिलकुल साफ कर देने की जरूरत है। जब 1919 में जालियांवाला बाग के बाद महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन की शुरुआत की तो हर वह आदमी महात्मा गांधी के साथ था जो अंग्रेजों से देश को आजाद कराने की कोशिश कर रहा था। हिंदू मुसिलम एकता के लिए भी वह दौर स्वर्णयुग था, इस तरह की एकता 1857 में ही देखी गई थी। इसी एकता से घबड़ाकर तो अंग्रेजों ने 1920 के दशक में बहुत सारे ऐसे संगठन खड़े करवाए जो गांधीजी का विरोध कर सकें। लेकिन सारा देश गांधी की आंधी का हिस्सा बन चुका था लिहाजा किसी की कुछ नहीं चल रही थी।

अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की नीति ने 1930 के दशक में कुछ असर दिखाना शुरू किया। लंदन से लौटे जिनाह का 1936 में लखनऊ में ताल्लुकेदारों ने स्वागत किया और वे मुसलिम एलीट के नेता बन गए लेकिन बड़ी संख्या में मुसलमान और हिंदू गांधी के साथ ही रहे। यही वह दौर है जब जिनाह ने महात्मा गांधी को हिंदुओं का नेता कहना शुरू कर दिया लेकिन उन्हें कोई सफलता नहीं मिली कांग्रेस के उस वक्त के अध्यक्ष मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, जिनाह से बहुत बडे़ इंसान थे, बहुत बडे़ नेता थे, दीन और ईमान के जानकार थे और पूरे देश में उनकी इज्जत थी। अल हिलाल और अल बिलाग जैसे आदरणीय अखबार निकाल कर कौम और मिल्लत की सेवा कर चुके थे, और पूरे देश के मुसलमान उनका सम्मान करते थे। इसलिए जिनाह की गांधी जी को हिंदुओं का नेता साबित करने की कोशिश पूरी तरह नाकाम हो गई। कांग्रेस ने भी अंग्रेजों और जिनाह की हर कोशिश को नाकाम किया।

सच्ची बात यह है कि आजादी की लड़ाई में केवल दो पक्ष थे। एक तो अंग्रेजों की गुलामी से ऊब चुकी भारत की जनता और दूसरा पक्ष था ब्रिटिश साम्राज्य। बाकी जितने भी पक्ष थे सहायक भूमिका में थे। महात्मा गांधी और कांग्रेस के साथ हिंदू, मुसलमान सिख, ईसाई सब थे। मुसलिम ज़मींदार और उनके संगी साथी जिनाह के साथ थे। जिनाह खुद 1936 के बाद से अंग्रेजों के हिसाब से काम करते रहे। जानकार बताते हैं कि आजादी की लड़ाई के इस दौर में आर.एस.एस. का कहीं पता नहीं था। देश के सभी हिंदू और बहुत बड़ी संख्या में मुसलमान गांधी के साथ थे। हिंदुत्व की राजनीति करने वाली पार्टी के नेता उन दिनों वी.डी. सावरकर थे जो अंग्रेजों को माफीनामा देकर जेल से बाहर आए थे और इसी वजह से उनकी पार्टी की हिंदू समाज में कोई इज्जत नहीं थी, बिलकुल हाशिए पर थी।

अब तक यही माना जाता रहा है कि आज़ादी की लड़ाई में अंग्रेजों के मुकाबिल केवल महात्मा गांधी खड़े थे, पूरा देश उनके साथ था। बस कुछ लोग अंग्रेजों के साथ थे। इसलिए इस मामले में हिंदुओं को महात्मा गांधी से अलग करके पेश करने की कोशिश की राजनीति काफी सोच समझकर चलाई जा रही है और जनता को इससे संभालकर रहना चाहिए। इस देश के न्यायपसंद और विद्वान इतिहासकारों और पत्रकारों को चाहिए कि इस मुद्दे पर फौरन चर्चा शुरू करें और एक झूठ को इतिहास का हिस्सा बनाने की साजिश का पर्दाफाश करें यह काम फौरन शुरू हो जाना चाहिए वरना बहुत देर हो जाएगी।

(शेष नारायण सिंह १९२० से १९४७ तक की महात्मा गाँधी की जीवनी के उस पहलू पर काम किया है जिसमें वे एक महान कम्युनिकेटर के रूप में देखे जाते हैं..1992 से अब तक तेज़ी से बदल रहे राजनीतिक व्यवहार पर अध्ययन करने के साथ साथ विभिन्न मीडिया संस्थानों में नौकरी की. अब मुख्य रूप से लिखने पढने के काम में लगे हैं. संपर्क:sheshji@gmail.com)

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