पसमांदा सियासत ; दूसरों की खता नहीं, अपनों ने ही छला

इर्शादुल हक़

इकबाल के एक शेर का सार है कि किसी कौम की हालत उस वक्त तक नहीं सुधरती जबतक उस कौम के लोग खुद ही अपनी हालत सुधारने की कोशिश नहीं करते। ऐसे में भारतीय और खास तौर पर बिहारी मुसलमानों की बदहाली पर सिर्फ आँसू बहाना कहाँ तक मुनासिब है
?दरअसल मुसलमानों की बदहाली का मामला उनके नेतृत्व जे जुड़ा है। जिस समुदाय के रहबर सत्ता प्रतिष्ठान के सामने बेबसी में हाथ फैला कर अपने लिए एक अदद कुर्सी हासिल कर लेना ही अपना मुकद्दर समझते हों तो वैसे नेतृत्व से मुस्लिम समाज के एक आम आदमी का कितना भला होगा? हाथ फैलाना तो एक भिखारी की नियति है। और फिर किसी परिवार का मुखिया खुद अपने लिए भीख मांगे तो उसके सदस्य अपनी हालत किसके सहारे सुधारेंगे ?

पिछले छह दशकों से विभिन्न सरकारों पर बिहार के डेढ करोड़ मुसलमानों के साथ नाइंसाफी, भेदभाव और छलने के जितने भी आरोप लगाये जायें और इसके लिए सरकारें जितनी भी जिम्मेदार हों पर हकीकत यह है कि इसके लिए उससे ज्यादा जिम्मेदार मुस्लिम नेतृतव रहा है। एक जमाने
से टोटल मुस्लिम के नाम पर सामाजिक, आर्थिक, मजहबी व राजनीतिक आंदोलन चलाने वाले उच्चवर्गीय मुसलिम नेतृत्व ने सत्ताप्रतिष्ठान से मुस्लिम वोटों की सौदेबाजी करके सत्ता सुख भोगते चले आ रहे हैं। अब वही काम पसमांदा मुसलमानों का नेतृव कर रहा है। नतीजा साफ है एक आम मुसलमान वहीँ खड़ा है जहाँ पचास साल पहले था.

उन्नीस सौ नब्बे के दशक में बिहार में शुरू हुए पसमांदा आंदोलन का प्रसार बड़ी तेजी से हुआ। मुसलमानों की 85 फीसदी आबादी वाले पसमांदा तबके के लिए यह आंदोलन एक उम्मीद की किरण बनकर सामने आया। लोगों ने इस आंदोलन के रहनुमाओं को सर आखों पर बिठाया। लेकिन मात्र दस-बारह सालों में इसके नेता राजनीतिक कुर्सी की भीख के लिए अपने हाथ सत्ताधारियों के पास फैला दिये। जब किसी आंदोलन का रहनुमा सत्ता या राजनीतिक कुर्सी का हिस्सा बनाता है तो सबसे पहले उसकी जुबान गुंगी हो जाती है। फिर आंदोलन का यही गुंगापन उसे बे मौत मारने के लिए काफी होता है।

सन दो हजार चार तक पसमांदा आंदोलन की बढ़ती लोकप्रियेता का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि बिहार के दो बड़े धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दलों- जदयु और राजद की जीत-हार में पसमांदा मुस्लिम समुदाय के वोटरों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। लेकिन इस आंदोलन से जुडे दोनों पसमांदा नेताओं ने सत्ता से समझौता कर लिया और बदले में राज्यसभा की कुर्सी हासिल की। इस घटना का नतीजा यह हुआ कि आज पसमांद आंदोलन बिखराव की ओर है। यह पसमांदा मुसलमानों के वोट की शक्ति ही थी जिससे विवश होकर लोकजनशक्ति पार्टी ने एक तीसरे पसमांदा मुसलमान साबिर अली को राज्यसभा भेजा। शायद आजादी के बाद यह पहला अवसर था जब बिहार से लगभग एक ही समय में तीन-तीन पसामांद मुसलमान राज्यसभा के लिए चुने गये। लोजपा के राज्यसभा सांसद साबिर अली स्वीकार करते हैं कि सत्ता से नजदीकी के कारण ही पसमांदा तहरीक बेजान हो कर रह गई है। वह कहते हैं कि मुसलमानों और खासकर पसमांदा मुसलमानों के सशक्तिकरण के लिए सत्ताविरोधी पसमांदा आंदोलन की जरूरत है और ऐसे में सत्तालोभी पसमांदा नेताओं के हाथों से इस आंदोलन को अलग करके ही इसे फिर से कामयाब बनाया जा सकता है। केंद्र सरकार द्वारा गठित सचर कमेटी ने हालाँकि दलित हिंदुओं से धर्मपरिवर्तित कर बने मुसलमानों के लिए अनुसूचित जातियों की तर्ज पर आरक्षण देने की सिफारिश की है लेकिन इस रिपोर्ट की एक महत्वपूर्ण बात पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया जाता जिसमें कहा गया है कि दलित पसमांदा मुसलमान समुदाय हीन भावना से ग्रसित है जिसमें आत्मविश्वास जगाने की जरूरत है।

लेकिन यह काम सरकारी स्तर के बजाये इस समादाय के नेतृत्व के स्तर पर ही संभव है। और यह काम सामाजिक आंदोलनों से ही किया जा सकता है।

मुसलमानों के पिछड़ेपन और गरीबी का मुख्य कारण इनके नेतृत्व की खुदगर्जी ही है.जैसे-जैसे मुस्लिम रहनुमाओं की राजनीतिक खुदगर्जी बढती गई वैसे-वैसे आम मुसलमानों की आर्थिक और शौक्षिक, समस्या बेकाबू होती गई। केंद्र सरकार द्वारा गठित राजेंद्र सचर कमेटी की रिपोर्ट सारी सच्चाइयों को उजागर करती है। बिहार के शहरी मुसलमानों में गरीबी हिंदुओं की तुलना में ग्यारह फीसदी ज्यादा है। अगर पसमांद मुसलमानों की बात करें तो यह गैरबराबरी और भयावह दिखती है।

बिहार में शहरी मुसलमानों में गरीबी अन्य हिंदुओं की तुलना में

कुल गरीब दर

36 फीसदी

हिंदू

34 फीसदी

मुस्लिम

45 फीसदी

इसी प्रकार बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों में हिंदुओं के मुकाबले में लगभग सात फीसदी ज्यादा मुसलमान गरबी रेखा से नीचे हैं। अगर इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो यह गैप और भी गंभीर हो सकता है.

हिंदुओं की तुलना में बिहार में ग्रामीण मुसलमानों में गरबी दर

कुल गरीबी दर

35 फीसदी

हिंदू

34 फीसदी

मुस्लिम

39.5 फीसदी

जहाँ तक साक्षरता दर की बात है तो ग्रामीण क्षेत्रों में हिंदुओं के मुकाबले 15 फीसदी ज्यादा मुसलमान असाक्षर हैं. जबकि शहरी क्षेत्र के हिंदुओं की तुलना में मुसलमानों की साक्षरता दर दस फीसदी कम है. गरीबी और साक्षरता दर में इस भारी अंतर से साफ जाहिर है कि रोजगार और नौकरियों की स्थित भी मुसलमानों में काफी दयनीय है. बल्कि यूं कहें नौकरशाही और अधिकारी स्तर की नौकरियों में मुसलमानों का अनुपात क्रमशह 1.9 से 3-5 फीसदी तक ही सीमित है। ध्यान देने की बात है कि बिहार में मुसलमानों की आबादी 16.5 फीसदी है पर सरकारी नौकरियों में इनकी भागीदारी 3.5 फीसदी तक ही सीमित है। इस समुदाय के अधिकतर लोग छोटेमोटे धंधे या स्वरोजगार पर ही निर्भर हैं जिसके कारण वह अपनी नई नस्ल को उचित शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे बुनियादी मामलों पर बहुत ही कम खर्च कर पाते हैं।

बिहार में हिंदुओं के मुकाबले मुसलमानों में साक्षरता दर

साक्षरता दर

कुल

हिंदु

मुस्लिम

47 फीसदी

47.9 फीसदी

42 फीसदी

शहरी

72 फीसदी

73 फीसदी

63.5 फीसदी

ग्रामीण

44फीसदी

54 फीसदी

39 फीसदी

अब तक अनुभव यह बताता है कि सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्र में मुसलमानों को उनके नेतृत्व से फायदा के बजाय नुकसान ही अधिक हुआ है। पर जिन क्षेत्रों में भारतीय मुसलमानों ने अपने सामुहिक नेतृत्व के बदले खुद अपने आप पर भरोसा किया उन क्षेत्रों में आज का मुसलमान किसी दूसरे समुदाय के लोगों से किसी मामले में पीछे नहीं हैं. मिसाल सामने है। फिल्म, साहित्य, कला और दूसरे पारफारमिंग आर्ट्स के मैदान में मुस्लिम अपनी कामयाबी का पताका लहरा रहे हैं। एपीजे अब्दुल कलाम,शाहरुख, आमिर, सानिया, इरफान पठान ऐसे ही प्रतिनिधि चेहरे हैं।

दैनिक हिंदुस्तान, चार मार्च 2010

1 comments

  1. Irshad Bhai,

    Just to bring into your notice that in very first line of your article the mentioned quote is not from Iqbal but it's from Quran. Please do the necessary correction.

    Regards!

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