
श्री जोशी की वरिष्ठता का सम्मान करता रहा हूं. वह आधुनिक हिंदी पत्रकारिता के उन्नायकों में से एक हैं. अगर वह मुझे एवं मेरे कामों को नहीं जानते, और 'किसी प्रमोद रंजन' कह कर संबोधित करते हैं तो कोई अचरज नहीं. उनकी वरिष्ठता के सामने मैं सचमुच बच्चा हूं. ये दोनों संबोधन मुझे अप्रिय नहीं लगे. किंतु उन्होंने मुझे 'रतौंधी से ग्रस्त', 'नयनसुख' और 'काले धंधे का रक्षक' भी कहा. आश्चर्य उनकी इस बौखलाहट पर है. आखिर, क्या कारण है कि पत्रकारिता में ऊंची जाति के हिंदुओं के वर्चस्व और उनके जाति-धर्म, मित्र धर्म के निर्वाह की बात उठते ही एक प्रमुख गांधीवादी के रूप में पहचान रखने वाले श्री जोशी रामनामी उतारकर परशुराम की भूमिका में आ गये? उन्होंने अपने लेख में कहा कि अगर मेरे 'पुण्य कार्य' में फच्चर फंसाया तो 'टिकोगे नहीं' !
कुछ वर्ष पहले मेरे अग्रज मित्र श्री प्रेमकुमार मणि ने उन्हें कुटिल ब्राह्मणवादी बताया था. उस समय मैं इससे सहमत नहीं हो सका था और जिरह की थी कि श्री जोशी में जो किंचित प्रतिगामिता दिखती है वह गांधीवाद के कारण है न कि ब्राह्मणवाद के कारण. लेकिन श्री जोशी के इस लेख को कई बार गौर से पढ़ने के बाद मैं अपनी उस धारणा पर पुनर्विचार के लिए विवश हुआ हूं.
उन्होंने अपने लेख में धौंस भरी भाषा में पत्रकारिता में व्याप्त जातिवाद का संरक्षण ही नहीं किया बल्कि कई जगह तथ्यों में सयास, बारीकी से हेर-फेर की है. उन्होंने 'बहस को पटरी से' उतार देने की धमकी देते हुए तर्कों और तथ्यों की रोशनी में साफ चमकती चीजों को धुंधला करने की भी कोशिश की है. इस तरह उन्होंने अपने कथित उत्तर में मेरे लेख में आयी बातों से प्राय: कन्नी काट ली है. रोचक विरोधाभास यह भी है कि वह मेरे लेख की मुख्य बातों से असहमत होने का कोई तर्क तक नहीं तलाश पाये हैं.
मैंने अपने लेख में कहा था कि 'अखबारों का चुनावी पैकेज बेचना बुरा है लेकिन उसे अधिक बुरा है पत्रकारिता में जाति धर्म और मित्र धर्म का निर्वाह'. श्री जोशी मेरी इन पंक्तियों को उद्धृत करते हुए गुस्से से कांप उठे, लेकिन इससे असहमति नहीं जता पाये हैं. इसी तरह, मैंने कहा था कि पैकेज के कारण पत्रकारिता की विश्वसनीयता बुरी तरह क्षतिग्रस्त हुई है. इस क्षरण से नुकसान दलित पिछड़ों की राजनीतिक ताकतों, वाम आंदोलनों और प्रतिरोध की व्यक्तियों को भी हुआ है. मीडिया के ब्राह्मणवादी पूंजीवाद ने भी इन्हें उपेक्षित, अपमानित और दिग्भ्रमित किया है. श्री जोशी ने अपने लंबे लेख में इससे संबंधित हिस्सों को विस्तार से उद्धृत किया है और अंतत: कहा है कि 'मीडिया से दलित-पिछड़ों, वाम आंदोलनों आदि के सरोकार बाहर हुए तो सिर्फ इसलिए नहीं कि वहां घनघोर बाजारबाद और ब्राह्मणवादी पूंजीवाद आ गया है.' जाहिर है, वह मेरी इस बात से सहमत हैं कि मीडिया में 'ब्राह्मणवादी पूंजीवाद' है. लेकिन वह इससे आगे बढ़कर कहते हैं कि इन ताकतों के सरोकार इसलिए मीडिया के बाहर हो गये क्योंकि सत्ता, धन लालसा और वंशवाद के कारण चौधरी चरण सिंह, मायावती, लालू प्रसाद, मुलायम सिंह, नीतीश कुमार, अजीत कुमार, चौटाला आदि ने पिछड़ों के हितों को बरबाद कर दिया. यानी, बकौल श्री जोशी मीडिया के ब्राह्मणवादी स्वरूप की इसमें कोई भूमिका नहीं है. उसने तो इन जैसों को महज 'जैसी करनी, वैसी भरनी' की कसौटी पर चढ़ा कर अपना 'सामाजिक धर्म' निभाया है. इन राजनेताओं पर लगाये गये आरोप उचित हो सकते हैं, लेकिन यह मीडिया के सामाजिक सरोकारों को देखने का सतही ही नहीं 'शातिर' ढंग भी है. सवाल यह है कि - क्या मीडिया ने अपना यह कथित 'सामाजिक धर्म' प्रभुवर्गों के हितों की राजनीति करने वाली ताकतों के साथ भी निभाया है? अगर प्रभाष जोशी कहते हैं- हां, तो फिर उनसे यह पूछा जाना चाहिए कि इन ताकतों के सरोकार मीडिया से बाहर क्यों नहीं हो गये? क्या श्री जोशी यह कहने का भी दु:साहस जुटा लेंगे कि ये ताकतें सत्ता, धन लिप्सा और वंशवाद से विरक्त रही हैं!
मैंने अपने लेख में 'पैकेज के काले धंधे' की भर्त्सना के लिए श्री जोशी के लेखकीय साहस की प्रशंसा की थी और इस ओर ध्यान दिलाया था कि इस मुद्दे पर बात करने वाले लोग जाति पर आधारित पत्रकारिता को नजरअंदाज कर देते हैं. इसी क्रम में मैंने एक सामाजिक प्रतीक का सहारा लेकर पैकेज के धंधे को 'ब्राह्मण पर बनिया की जीत' बताया था. माने यह ब्राह्मणवाद पर पूंजीवाद की विजय है. श्री जोशी ने मेरी इस बात को भी उद्धृत किया है. मैं यह देखकर सन्न रह गया उन्होंने इस संदर्भ को बड़ी चतुराई से इसे 'बनिया और दलित-पिछड़ा नवधनिक राजनेताओं का गठजोड़' का परिणाम बताने की कोशिश की. वह कहते हैं ''देखते नहीं कि यह बनिये की ब्राह्मण पर विजय भर नहीं है..यह भ्रष्ट राजनेताओं और पत्रकारिता को काली कमाई का धंधा बनाने वाले मीडिया मालिकों की मिलीभगत है.'' श्री जोशी के लेख के अनुसार सत्ता और धन के पिपासु दलित-पिछड़े नेता हैं, जिनके कारण दलित-पिछड़ों के सरोकार मीडिया से बाहर हो गये हैं. वे अब 'पैसा फेंक, खबर छपवा' रहे हैं. ध्यान दिया जाना चाहिए कि श्री जोशी चाहते तो इस कुकृत्य के लिए पूंजीवाद (बनिया) और नवधनिक राजनेताओं के साथ ब्राह्ममणवाद को भी जिम्मेदार ठहरा सकते थे. मैंने अपने लेख में कहा भी था कि 'पैकेज ने जातिजीवी संपादकों की मुट्ठी में कैद अखबारों के खिड़की-दरवाजे सभी जाति के धनकुबेरों के लिए खोले हैं'. लेकिन श्री जोशी ने इस पर चुप्पी साध ली. उनकी आतुरता इसके लिए थी कि ब्राह्मणवाद का सवाल न उठे. उस पर आंच न आए.
उन्होंने कई प्रसंगों में तथ्यों के साथ हेरा-फेरी करने की भी सयास कोशिश की. मैंने पत्रकारिता में जाति धर्म और मित्र धर्म के निर्वाह के उदाहरण के तौर पर कहा था कि बांका से लोकसभा चुनाव लड़ रहे श्री दिग्विजय सिंह के पक्ष में आयोजित जनसभा में पैकेज की बिक्री का विरोध करने वाले प्रभाष जोशी और हरिवंश भी गये थे. इस संदर्भ में श्री जोशी द्वारा दिया गया उत्तर जरा देखिए-'हरिवंश जेपी आंदोलन से कुछ पहले से मेरे मित्र हैं. बांका उनका मेरे साथ जाना भी कोई बड़ी बात नहीं है..उनकी सोहबत मुझे प्रिय और महत्वपूर्ण लगती है.' सवाल यह था कि श्री हरिवंश को 'दिग्विजय सिंह` की 'सोहबत' क्यों प्रिय और महत्वपूर्ण लगती है? यह सोहबत उनके किस धर्म के निर्वाह का संकेत करती है? और खुद श्री जोशी दिग्विजय सिंह के नामांकन के दौरान किस धर्म के तहत मंच से उद्घोष कर रहे थे कि यह 'दिग्विजय सिंह का नामांकन की नहीं, जीत की जनसभा है' ? मूल सवाल को इस तरह गोल कर दिया जाना अनायास नहीं है. प्रभाष जोशी, हरिवंश और रामबहादुर राय बतौर पत्रकार आपस में मित्र धर्म का निर्वाह कितना करते हैं, इस बात का न तो तात्कालिक संदर्भ था, न ही इस प्रसंग में कोई उपयोगिता. लेकिन उन्होंने आपस में मित्र धर्म नहीं निभाने की दुहाई देकर बहस को पटरी से उतारने की कोशिश की.
उन्होंने मेरी पोल खोल देने वाले अंदाज में कहा कि वह चाहें तो बहस को पटरी से उतार सकते हैं. उन्हें तमाम मसलों पर पटरी अथवा बेपटरी, जैसी वह चाहें, बहस के लिए मेरा आमंत्रित स्वीकार करना चाहिए. उनका संकेत इस ओर है कि मैं प्रभात खबर में बतौर पत्रकार काम कर चुका हूं और अब नमक हरामी कर रहा हूं.
श्री जोशी ने अपनी बात दिग्विजय सिंह के लिए 'मीडिया प्रबंधन' कर रहे पत्रकार की डायरी के हवाले से शुरू की थी. यद्यपि उन पत्रकार ने सफागोई से अपनी डायरी लिखी है. मैं उनका प्रशंसक हूं कि उन्होंने मीडिया में पैसे के अलावा जाति, पद और परिचय के खेल को भी समझा और उसे बेबाकी से दर्ज किया. यह उल्लेखनीय बात है. लेकिन उनकी प्रशंसा का पुल बांधने वाले श्री जोश बता पाएंगे कि 'मीडिया प्रबंधन' के मायने क्या हैं? क्या यह मीडिया की कथित 'तटस्थता, नि पक्षता और स्वतंत्रता' को बरकार रखने का माध्यम है? 'मीडिया प्रबंधक' पत्रकार ने अपनी डायरी में यह भी साफ किया है कि वह बांका में रह कर दिग्विजय सिंह के लिए अखबारों के पैकेज खरीद रहे थे. उन्हें 'रिचार्ज' करवा रहे थे. क्या यह बताने की जरूरत है कि रतौंधी ग्रस्त बच्चा कह कर मुझे कोसने वाले श्री जोशी इन तथ्यों को नजरअंदाज कर 'लोकसभा चुनाव जैसे नाजुक और निर्णायक मौके पर' अपने लेखों में दिग्विजय सिंह की प्रशंसा के पुल क्यों बांध रहे थे? जबकि वह मानते हैं कि पैकेज की परंपरा 'सबसे ज्यादा भ्रष्ट राजनेताओं के हित में' है. क्या उनकी नजर में भ्रष्टाचार का यह पैमाना ऊंची जाति, ऊंची शिक्षा और ऊंचे संपर्क वालों पर लागू नहीं होता?
प्रभात खबर और हिंदुस्तान ने (न कि सभी अखबारों ने. श्री जोशी ने इस मामले में भी मुझे गलत उद्धृत किया है) लोकसभा चुनाव के दौरान बिकी हुई खबरों के नीचे क्रमश: पीके मीडिया इनिशिएटिव और एचटी मीडिया इनिशिएटिव लिखा था. श्री जोशी इसे प्रभात खबर का 'अभियान' मानते हैं और चाहते हैं 'नयनसुख प्रमोद रंजन' को इसके लिए प्रभात खबर की तारीफ करनी चाहिए. 'पीके मीडिया इनिशिएटिव' का अनुवाद होगा 'एक मीडिया संस्थान के रूप में प्रभात खबर की पहल'. क्या मतलब है इस बात का? क्या मतदाता इन शब्दों से समझ जाएगा कि यह खबर नहीं, विज्ञापन है? बिकी हुई खबर को, विज्ञापन को, कोई अखबार अपनी विशेष पहल बता रहा है और आप चाहते हैं लोगों को उसकी नियत पर भरोसा करना चाहिए?
मेरे जिस लेख पर श्री जोशी बिफरे हैं, उसके निष्कर्ष ठोस तथ्यों पर आधारित हैं. मैंने बिहार के मीडिया संस्थानों में काम करने वाले पत्रकारों की सामाजिक पृष्ठभूमि का सर्वेक्षण किया है तथा राजनीतिक समाचारों व प्रतिरोध आंदोलनों के बारे में प्रसारित होने वाली खबरों के कंटेंट और उनकी भाषा का गहनता से अध्ययन किया है. सामाजिक पृष्ठभूमि के सर्वे में विभिन्न जातियों के प्रतिनिधित्व के मामले में प्रभात खबर की स्थिति सबसे शर्मनाक रही है. वहां 'फैसला लेने वाले' ऊपरी पांच पदों पर एक ही जाति के पत्रकार विराजमान हैं. और कोई रतौंधी का शिकार बच्चा भी इसे अनदेखा नहीं कर सकता कि ये सभी लोग अखबार के प्रधान संपादक की ही जाति के हैं. मेरा यह अध्ययन पिछले दिनों 'मीडिया में हिस्सेदारी' नामक पुस्तिका में प्रकाशित हुआ है. प्रसंगवश यह भी बता देना चाहता हूं कि सर्वेक्षण में पाया गया कि बिहार के मीडिया संस्थानों में 'फैसला लेने वाले पदों' पर एक भी दलित, आदिवासी, पिछड़ा, समाजिक रूप से पिछड़े अल्पसंख्यक या महिला नहीं है.
एक पत्रकार द्वारा ब्राह्मणवाद की शिकायत करने पर उसे मनोरंजन का साधन बना डालने की गर्वपूर्ण स्वीकरोक्ति करने वाले प्रभाष जोशी कहते हैं कि उनके निर्देशन में 'जनसत्ता का पूरा स्टाफ संघ लोक सेवा अयोग से भी ज्यादा सख्त परीक्षा के बाद लिया गया था'. लेकिन उनके ही अनुसार इस सख्त परीक्षा में ब्राह्मण ही ज्यादा चुनकर आये थे क्योंकि 'जिस भाषा में जैसे लोग पत्रकारिता में निकल कर आएंगे, वैसे ही तो रखे जाएंगे'. तो, जोशी जिस प्रकार की पत्रकारिता कर रहे थे उसके लिए हिंदी भाषा में ज्यादा ब्राह्ममण आये और उनकी सोहबत में रहने वाले हरिवंश की पत्रकारिता के लिए ज्यादा राजपूत! 'हिंदी भाषा' की समझदारी को तो दाद देनी चाहिए, जिसको जैसा चाहिए वह अपने-आप निकाल कर सामने परोस देती है! यहां यह भी याद रखना चाहिए कि संघ लोक सेवा आयोग की नौकरियों में वंचित तबकों के लिए आरक्षण होता है.
मीडिया खुद को जनतंत्र का चौथा खंभा कहता है तो उसमें भी जनतंत्र दिखना चाहिए या नहीं? भारत में जनतंत्र के लिए किये गये संघर्ष के दो पहलू रहे हैं. एक ओर गांधी, तिलक आदि की राजनीतिक जनतंत्र की मांग थी तो दूसरी ओर ज्योतिबा फुले और अंबेदकर आदि ने इस संघर्ष का विस्तार सामाजिक साम्राज्यवाद तक करते हुए लड़ाई लड़ी थी. राजनीतिक लोकतंत्र तो मिल गया लेकिन सामाजिक सम्राज्यवाद अभी भी कायम है. लेकिन सामाजिक सम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ाई में हाथ बंटाने की बात तो दूर, श्री जोशी तो कहते हैं कि 'हम कोई मंत्रीमंडल नहीं बना रहे थे, जो सबको प्रतिनिधित्व देते'. उनका यह वक्तव्य बताता है कि वह हमारे राजनीतिक लोकतंत्र को भी किस नजरिये से देखते हैं. इस वक्तव्य में क्या हम उसी ब्राह्ममणवाद को सिर चढ़ कर नाचते नहीं देखते, जिसके आवेश में १८९५ के पूना कांग्रेस में पंडित गंगाधर तिलक ने अछूतों के सवाल पर कांग्रेस का पांडाल में ही फूंक देने धमकी दी थी. यह कितनी खतरनाक बात है कि श्री जोशी को भारत के सर्वसमावेशी मंत्रीमंडल से अधिक पवित्र और महत्वपूर्ण एक ऐसे अखबार का न्यूज रूम दिखता है, जहां ऊपर से नीचे तक ब्राह्मण भरे हों.
मेरा सवाल था, और है कि समाचार माध्यमों की आंतरिक संरचना में अधिकाधिक सामाजिक वर्गों के प्रतिनिधित्व की जरूरत है या नहीं? यद्यपि श्री जोशी के इस लेख को पढ़ने के बाद मैं अपने अग्रज मित्र प्रेमकुमार मणि से सहमत हो चुका हूं और उनसे सकरात्मक उत्तर की उम्मीद पालने को अपना बचपना मानने को विवश हूं. वस्तुत: अपने इस लेख में श्री जोशी सप्रयास अर्जित गांधीवादी छवि छोड़कर असली रूप में उतर आए, वह भी उन्हीं के शब्दों में सिर्फ 'एक बच्चे की ताली पर`.
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