इर्शादुल हक़
‘अब पिछड़े मुसलमान महज़ वोट देने वाले नहीं रहेंगे. हम वोट लेंगे. अब वह ज़माना गया जब वोट हमारा और फ़तवा तुम्हारा की नीति चलती थी.’ यह विद्रोही तेवर एहशान दानिश का है. दानिश मुसलमानों की अतिपिछड़ी जाति से हैं तथा एक गुमनाम राजनीतिक-समाजिक कार्यकर्ता हैं. उनकी यह बात पसमांदा (पिछड़े) मुसलमानों में बिहार में पिछले पंद्रह वर्षों में आये राजनीतिक चेतना के स्वर का प्रतिनिधित्व करती है. दानिश कहते हैं, ‘हम बताना चाहते हैं कि पिछड़े हिन्दुओं की तरह पिछड़े मुसलमानों की आबादी भी सर्वाधिक है इसलिए सत्ता में पिछड़े मुसलमानों की भागीदारी भी उनकी आबादी के अनुपात में होनी चाहिए.’ वह कहते हैं, 'मेरा चुनाव में हिस्सा लेना इसी बात का संकेत है.यह विद्रोह है उच्चवर्गीय( अशराफ़िया) मुसलमानों के शोषण के ख़िलाफ़.'
1993-94 में बिहार में पसमांदा मुसलमानों ने राजनीति में आबादी के अनुपात में अपनी हिस्सेदारी के लिए आंदोलन की शुरुआत की थी. उनका दावा था कि कुल आबादी का 85 प्रतिशत पसमांदा मुसलमान हैं. इसलिए राजनीति में उनकी नुमाइंदगी भी इतनी ही होनी चाहिए. पिछड़े मुसलमान, आबादी के लिहाज से पिछड़े हिंदुओं की तरह बहुत अधिक हैं लेकिन राजनीति में उनकी नुमाइंदगी 20 प्रतिशत से ज़्यादा कभी नहीं रही.
बिहार में पिछले पंद्रह वर्षों के पसमांदा आंदोलन का असर 2005 में आये सत्ता परिवर्तन के बाद दिखने लगा. इस दरम्यान जनता दल (यू) ने दो पिछड़े मुसलमान- अली अनवर और डा. एम. एजाज अली को, जबकि लोक जनशक्ति पार्टी ने साबिर अली को राज्यसभा का सदस्य बनवाया.
बिहार की राजनीति में इसे बदलाव की अनोखी आहट के रूप में देखा गया. बल्कि यूँ कहें कि आजादी के बाद यह पहला अवसर था जब राजनीतिक पार्टियों ने 'मुसलमान’ नहीं बल्कि 'पसमांदा मुस्लमान’ के नाम पर अपने प्रत्याशियों को राज्यसभा में भेजा. लोकसभा और विधानसभा चुनावों के लिए प्रत्याशी चयन में पसमांदा मुसलमानों के लिए हिस्सीदारी की आवाज़ अभी तक या तो उतनी मुखर नहीं हो पाई है या होने नहीं दी गई. लेकिन पसमांदा आंदोलन से जुड़े नेताओं ने इसबार सभी सेक्युलर पार्टियों को आगाह किया है कि वे टिकट बंटवारे में पसमांदा मुसलमानों की सुमचित नुमाइंदगी सुनिश्चित करें. बिहार में 16.5 फीसदी मुस्लिम आबादी है जिनमें पसमांदा मुसलमानों की आबादी ही सबसे ज्यादा है. राज्य की कुल 243 विधानसभा सीटों में से 50 ऐसी हैं जहाँ मुसलमान निर्णायक वोट हैं. इन पचास सीटों में मुसलमानों की आबादी 18 से 74 फ़ीसदी तक है.
ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज़ के अध्यक्ष व जनता दल (यू) के राज्यसभा सांसद उन नेताओं में से एक हैं जिन्हों ने पसमांदा मुस्लिम आंदोलन को दिशा दी है. बल्कि आज वह इस आंदोलन की वजह से ही राज्यसभा के सदस्य बने हैं. वह कहते हैं, ‘मंडल आयोग की सिफ़ारिशें लागू होने के बाद हिंदू पिछड़ा समाज काफ़ी सशक्त हुआ है. लेकिन पिछड़े मुसलमानों में राजनीतिक चेतना का फिलहाल वह स्तर नहीं है. हाँ, आने वाले पंद्रह वर्षों में पसमांदा आइडेंटिटी इतनी सशक्त हो चुकी होगी कि उनकी राजनीति में समुचित नुमाइंदगी को रोका नहीं जा सकेगा.'
अनवर इसकी वजह खुद ही बताते हैं. कहते हैं, 'चुनाव जीतने के लिए सियासी पार्टियाँ कम से कम तीन बातों का ध्यान रखती हैं- पहला प्रत्याशी की अपनी मज़बूत पहचान हो. दूसरा उसके पास बाहुबल हो तथा तीसरा उसमें वर्तमान परिवेश में वोट ले सकने का सामर्थ हो, यानी वह आर्थिक रूप से इतना सक्ष्म हो कि वोट के लिए पैसे ख़र्च कर सके.’ अनवर कहते हैं, ‘पसमांदा मुस्लिम नेताओं की अपनी पहचान तो है लेकिन वे बाहुबल और धनबल के मामले में एकदम पिछड़ जाते हैं. इसिलए तमाम पार्टियाँ पसमांदा मुसलमानों को टिकट देने से कतराती हैं.’
पसमांदा मुस्लिम आंदोलन को धारदार बनाने वालों में से एक अन्य नेता डा. एम एज़ाज़ अली इस बात से सहमत नहीं हैं. वह कहते हैं, ‘धनबल और बाहुबल की बात करना लोकतंत्र की शक्ति को कमज़ोर करके आंकने जैसा है. हमें उत्तर प्रदेश में काँशी राम के सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन से प्ररेणा लेने की ज़रूरत है. कांशी राम ने साइकिल पर घूम-घूम कर दलितों को गोलबंद किया और पंद्रह सालों में दलित समाज में इतनी चेतना जगाई कि जनता ने एक वोट और एक नोट देकर बहुजन समाज को सत्ता तक पहुँचा दिया.' डा. एजाज अली पिछले पंद्रह वर्षों से अपने संगठन ऑल इंडिया युनाइटेड मुस्लिम मोर्चा के जरिये पसमांदा मुसलमानों को गोलबंद करने में जुटे हैं. उनको मिले जनसमर्थन को देखते हुए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार नें उन्हें अपनी पार्टी, जद (यू) से राज्यसभा का सदस्य बनवाया था. बाद में डा. अली ने अपनी पार्टी से बग़ावत तक कर डाली. उन्होंने नीतीश को सलाह दी कि वह भाजपा जैसी साम्प्रदायिक पार्टी का साथ छोड़ें तो पिछड़े मुसलमान उनके समर्थन में खुलकर आयेंगे. इसके बाद डा. अली ने अपनी एक अलग सियासी पार्टी जनता दल( एम) बना ली है. वह कहते हैं, ‘हम कमज़ोर इसलिए हैं कि हमारी मानसिकता ग़ुलामों जैसी है. हमें ग़ुलामी की मानसिकता से निकलना होगा और हाकिमों जैसी राजनीति करनी होगी. अगर हम ग़ुलाम मानसिकता लिए हुए चुनाव के लिए विभिन्न दलों से टिकट मांगेगे तो भला हमें कोई क्यों पूछेगा. इसलिए हमारी पार्टी (जनता दल( एम यानी मेहनतकश) ने फ़ैसला किया है कि हम अपने बूते कम से कम पचास विधानसभा क्षेत्रों से अपने प्रत्याशी खड़े करेंगे. जिनमें 85 प्रतिशत टिकट पसमांदा समाज के उम्मीदवारों को दिया जायेगा.इसके लिए धन की नहीं अवाम को जागृत करने की ज़रूरत है.’
स्वतंत्र शिनाख़्त का संधर्ष
दो हज़ार पाँच के विधानसभा चुनावों के पहले तक लालू प्रसाद यादव को मुसलमानों का एक मुश्त समर्थन मिलता रहा. लालू अपने शासनकाल में कभी यह क़ुबूल करने के लिए तैयार नहीं हुए कि मुसलमानों में ज़ाति के आधार पर बंटवारा हो. मुसलमानों का एकमुश्त वोट लेते रहने की उनकी ललक के आगे भला वह यह कैसे कुबूल करते कि मुस्लिम वोट का बंटवारा हो. उस ज़माने में लालू अकसर कहते रहे कि इस्लमा एक है इसलिए सभी मुसलमान भी एक हैं और उन्हें ऐसी ताक़तों से सावधान रहना चाहिए जो उनके अंदर विभाजन की कोशिश करते हैं. लेकिन 2005 के विधानसभा चुनाव में चारों खाने चित होने के बाद अब उनका नज़रिया बदल गया है. पिछले दिनों अपने आवास पर एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा कि उनका दल पसमांदा मुसलमानों को भी समुचित सम्मान देगा. लालू के रुझान में आये परिवर्तन की वजह साफ़ है. उन्होंने 2005 के चुनाव में देखा कि पसमांदा मुसलमानों के एक हिस्से ने उनकी पार्टी के ख़िलाफ़ वोट दिया जो नीतीश के समर्थन के रूप में उजागर हुआ.चुनाव विशेषज्ञ योगेंद्र यादव ने भी इस बात को रेखांकित किया है. वह कहते हैं, ‘पसमांदा मुसलमानों का एक धड़ा निश्चित रूप से 2005 के विधानसभा चुनाव में नीतीश के साथ था.’ इसी के बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने स्थितियों को अच्छी तरह भांपते हुए पसमांदा मुसलमानों में लोकप्रियता हासिल करने की कोशिश भी की है. उन्होंने पिछले सालों में इसी रणनीति के तहत बड़ी बारीकी से काम भी शुरू किया. एक तरफ़ उन्होंने जहाँ पूरे मुस्लिम समुदाय को रिझाने का प्रयास किया तो दूसरी तरफ़ पिछड़े मुसलमानों को खुश करने के ले दो दिवंगत पिछड़े नेता अब्दुल कयूम अंसारी और ग़ुलाम सरवर के नाम पर भवन भी बनवाया व इस बात को भी उन्होंने ख़ूब प्रचारित किया. इधर पसमांदा मुस्लिम संगठनों का समर्थन लेने के लिए नपेतुले लहज़े में नीतीश ओर लालू दोनों ने अपनी कोशिशें जारी रखी. इस कारण भी पसमांदा शिनाख़्त की सियासत बलवती होती रही. अली अनवर कहते हैं, ‘पिछले एक दशक के संघर्ष में हमने पसमांदा विचारधारा की लड़ाई जीत ली है. आज पसमांदा पहचान हमारी राजनीतिक धरोहर के रूप में विकसित हुई है.' वह कहते हैं, ‘पहले जब हम पसमांदा समाज के अधिकार की बात उठाते थे तो अशराफ़िया (सवर्ण मुसलमान) हमारा विरोध करते थे. लेकिन आज अगड़े मुस्लिम ख़ुद को पसमांदा घोषित करने की होड़ में लगे है. पहले राजनीतिक पार्टियाँ अल्पसंख्यक के नाम पर टिकट दिया करती थीं. अब वे यह ज़रूर पूछती हैं कि आप पसमांदा मुसलमान हैं या सवर्ण मुसलमान.’
मुसलमानों में हिंदुओं की तरह सामाजिक ग़ैरबराबरी हमेशा रही है. बल्कि ऊंची जाति के लोगों द्वारा निम्म जातियों पर शोषण और अत्यचार के मामलमे भी सामने आते रहते हैं. लेकिन सरकारी लाभ के लिए पिछले कुछ सालों में बिहार की ऊँची ज़ातियों द्वारा ख़ुद को पिछड़ी जाति में शामिल करने के प्रयास न सिर्फ़ बढ़ें हैं बल्कि ऊँची जाति की मलिक बिरादरी ने खुद को पिछड़ी जाति में शामिल करवाने में सफलता भी हासिल कर ली है. दूसरी तरफ़ शेख़ बिरादरी के लोगों नें राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग में खुदको पिछड़ा घोषित किए जाने के लिए आवेदन भी कर रखा है.
मुसलमानों की सामाजिक आर्थिक स्थिति का जायजा लेने वाली सचर कमेटी की रिपोर्ट में मुसलमानों को स्पष्ट रूप से तीन श्रेणियों में बाँटा गया है. ये हैं- अशराफ़, अज़लाफ़ और अरज़ाल. अशराफ़ सवर्ण मुसलमान हैं( शेख़, सैयद, पठान, मलिक आदि) वहीं अज़लाफ़ पिछड़ी ज़ाति के मुसलमान हैं. इनकी सूची लम्बी है. अज़लाफ़ श्रेणी में मुसलमानों की उन बिरादरियों को जगह दी गई है जिनकी स्थिति हिंदू दलितों की तरह है. इस श्रेणी में मोची, नट, बक्खो, मेहतर, हलालखोर जैसे दर्जन भर नाम हैं. इस रिपोर्ट के सार्वजनिक होने के बाद पिछड़े मुसलमानों की आवाज़ कुछ ज़्यादा ही मुखर हुई है. डा. एजाज अली कहते हैं, ‘पसमांदा- दलित पहचान की जो सामाजिक चेतना विकसित हो रही है वह अशराफ़िया मुसलमानों के लिए लिटमस टैस्ट है. हमें बराबर मज़हब के नाम पर गुमराह किया गया और हमने उनका आंख मूंद कर समर्थन किया. शाहबानों और बाबरी मस्जिद आंदोलन इसके उदाहरण हैं. बाबरी मस्जिद आंदोलन में तो पिछड़े मुसलमान ही मारे गये. इसलिए हमें अब यह गवारा नहीं कि कथित धर्म के नाम पर राजनीति वह करें और गर्दन पिछड़े मुसलमान कटवायें. इसलिए जब हम मुसलमानों के अंदर सामाजिक न्याय की बात करते हैं तो अगड़े मुसलमानों को हमारा समर्थन करना ही चाहिए.’
पसमांदा मुसलमानों द्वारा राजनीति में उचित भागीदारी की आवाज़ टोटल मुस्लिम पहचान की राजनीति करने वाले परम्परागत रहनुमाओं के लिए ख़तरे के रूप में उभर रहा है. पिछले दिनों दिल्ली की जामा मस्जिद के शाही इमाम अहमद बोखारी आगामी विधानसभा चुनाव में पूरे मुस्लिम समाज को एकजुट करने के प्रयास के लिए पटना आये थे.शाही इमाम का संबंध सैयद बिरादरी से है जो मुसलमानों की सबसे अगड़ी जाति है. उन्होंने मुसलमानों को एक रहने की नसीहत दी थी और कहा था कि आपसी बिखराव से पूरे मुस्लिम समाज को नुकसान उठाना पड़ेगा. उन्होंने अपील की थी कि मुसलमान धर्मनिरपेक्ष शक्तियों के साथ मिलकर साझा मंच बनायें. लेकिन डा.अली कहते हैं ‘टोटल मुस्लिम राजनीति करने वाले, पसमांदा मुसलमानों का समर्थन लेकर सत्ता तक पहुंचते रहे पर कभी भी उन्हें सत्ता में शामिल होने नहीं दिया. कभी हमारी जान को ख़तरा का वास्ता देकर तो कभी कथित हिंदू फिरक़ापरस्तों से हमें डरा कर हमारी बुनियादी समस्याओं से हमें दूर रखा गया. लेकिन जब भी शांति का माहौल होता है तब खुद मुसलमानों के अंदर कमज़ोर मुसलमानों की तरफ़ से अधिकार के लिए आवाज़ उठना स्वाभाविक है.’ दूसरी तरफ़ मुसलमानों का एकमुश्त वोट लेकर सत्ता तक पहुँचने वाले हिंदू नेताओं को भी पसमांदा राजनीति के उभार से ख़तरा महसूस हो रहा है. जनता दल (यू) को छोड़ कर राष्ट्रीय जनता दल का हाथ थामने वाले दबंग नेता व पूर्व सांसद प्रभुनाथ सिंह ने अपनी पार्टी छोड़ने के जिन कारणों को गिनाया, उसमें एक महत्वपूर्ण यह भी था कि नीतीश दलितों में महादलित की तरह मुसलमानों को भी पसमांदा के नाम पर आपस में बांट रहे हैं. उन्होंने पिछले दिनों छपरा के एक सम्मेलन में आरोप लगाते हुए कहा, ‘नीतीश कुमार वोट के लिए मुसलमानों को अगड़ा और पिछड़ा में विभाजित कर रहे हैं. यह एक ख़तरनाक खेल है.’ पर भले ही यह मामला कुछ राजनेताओं के लिए नफ़ा तो कुछ के लिए नुक़सान का कारण हो, समाज अपनी ज़रूरतों के हिसाब से ही अपनी दिशा तय करता है. बिहार के पसमांदा मुसलमानों के राजनीतिक उभार पर पैनी नज़र रखने वाले सामाज शास्त्री योगेंद्र यादव इसे सहज और रचनात्मक लोकतांत्रिक प्रकिया मानते हैं. वह कहते हैं 'जो आंदोलन तीस-चालीस साल पहले पिछड़े हिंदुओं में शुरू हुआ, वही स्थित अब पसमांदा मुसलमानों में बनी है. आख़िर कब तक समाज का एक छोटा सा हिस्सा बड़े तबके को दबा कर रखेगा. यह आंदोलन मज़बूत होते लोकतंत्र की गवाही है. अब तो यह आंदोलन बिहार ही नहीं बल्कि उत्तरप्रदेश के अलावा दूसरे राज्यों में भी मज़बूत हो रहा है.’
वोट बैंक का मिथक
मुसलमानों में अगड़े-पिछड़े के बढ़ते विभाजन को एकमुश्त मुस्लिम वोट बैंक के परम्परागत मिथक को धारासाई करने की एक कड़ी के रूप में देखा जाने लगा है. चुनाव विश्लेक और समाजशास्त्री योगेंद्र यादव कहते हैं, बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद से ही यह मिथक टूटने लगा था. लेकिन मुस्लमानों के निचले तबके की राजनीतिक चेतना जैसे-जैसे बढ़ रही है वैसे-वैसे लोगों को लगने लगा है कि मुसलमानों को वोटबैंक के रूप में इस्तेमाल कर पाना अब मुश्किल होता जा रहा है.' योगेंद्र कहते हैं, वोटिंग पर किए गए शोध ये दिखाते हैं कि बाक़ी हिंदुस्तानियों की तरह मुसलमान वोटर भी पहले पार्टी देखता है, फिर उम्मीदवार, फिर जात.’
पसमांदा मुसलमानों की तेज़ी से फैलती शिनाख्त की सियासत परम्परागत मज़हबी संगठनों को लिए ख़तरे की घंटी है क्योंकि इससे उनकी राजनीति में पूछ भी घटने लगी है और कद भी. अब पसमांदा मुसलमान लम्बी दाढ़ी व टोपी की पहचान से निकलना चाहते हैं. अली अनवर कहते हैं, ‘2005 में हमारे संगठन पसमांदा मुस्लिम महाज़, मज़हबी संगठनों के खिलाफ़ खड़ा था. हमने नारा दिया था कि वोट हमारा फ़तवा तुम्हारा नहीं चलेगा. इसका असर साफ़ दिखा. पसमांदा समाज को अपने विवेक पर यह फैसला करना है कि वह किस पार्टी को वोट दे. वे नीतीश के साथ हों या लालू के, या फिर कांग्रेस के अब वे अपने विवेक से फैसला लेने लगे हैं.’
मज़हबी संगठन, जिन पर आम तौर पर अगड़े मुसलमानों का ही वर्चस्व रहा है, तो सैद्धान्तिक तौर पर इस बात को स्वीकार करते हैं कि मुसलमानों की विभिन्न जातियों को उनकी आबादी के हिसाब से ही सियासी नुमांइदगी मिलनी चाहिए लेकिन वे अपने वर्चस्व के क़िले को धारासी होने देना स्वीकार नहीं करना चाहते. बिहार के प्रतिष्ठत मज़हबी संगठन इमारत-ए-शरिया के नाजिम मौलाना अनीसुरर्हमान कासमी कहते हैं, मुसलमानों की सामाजिक व आर्थिक समस्याओं का सामाधान सचर कमेटी की रिपर्ट के आईने में ही ढ़ूंढ़ने की ज़रूरत है. जिन बिरादरियों की जितनी आबादी है उन्हें उसी अनुपात में सियासी नुमाइंदगी मिलनी चाहिए पर तमाम बिरादरियों को समझना चाहिए कि मज़हबी तंज़ीमों की हैसियत अपनी जगह पर कायम रहे.’ ऊंची जाति से संबंध रखने वाले मौलाना कासमी कहते हैं, माशा अल्लाह मज़हबी तंज़ीमों का महत्व आज भी पूरी तरह बरकरार है और कल भी रहेगा. आज भी सियासी लीडर ऐसी तंज़ीमों को दरवाज़े पर दस्तक देते हैं.'
इस संबंध में योगेंद्र यादव कहते हैं, कांग्रेस ने एक ज़माने तक उनका इस्तेमाल वोट बैंक के रूप मे किया. फिर लालू और मुलायम ने इसी परम्परा को आगे बढ़ाया. आज ये तीनों उत्तरप्रदेश और बिहार में सत्ता से बाहर हैं तो इसमें मुसलमानों के एक हिस्से की भूमिका महत्वपूर्ण है.'
पसमांदा मुसलमानों में बढ़ती राजनीतिक चेतना को समाजशास्त्री एक साकारात्मक बदलाव के रूप में देख रहे हैं लेकिन इस चेतना से एक खलबलाहट पिछड़े मुसलमानों के सबसे निचले स्तर की जातियों में सामने आ रही है. पसमांदा आंदोलन में अहम करिदार निभाने वाले उसमान हलालखोर इस आंदोलन के आगे भी कुछ गैरबराबरी की संभावनायें देखते हैं. वह कहते हैं पिछड़े मुसलमानों को उनका मुनासिब राजनीतिक हक मिलना संतोष की बात है लेकिन हिंदू दलितों से धर्म परिवर्तित कर मुसलमान बने लोगों के अधिकार को भी हमें समझने की ज़रूत है. इस समाज में मोची, हलालखोर, लालबेगी, नट, बखो, मेहतर आदि जातियां हैं जो राजनीति के पायदान पर कहीं नहीं दिखतीं.’
ऐसी स्थिति में पसमांदा आंदोलन की असल कामयाबी तो तभी मानी जायेगी जब, सचर कमेटी द्वारा चिन्हित अरज़ाल ( जो दलितों के समतुल्य है) समाज को भी इसका लाभ हो.
( साभार- तहलका, 1-15 अक्टूबर, 2010, बिहार-झारखंड संस्करण)
it is fact that every muslim leaders politics depends on pasmanda muslims. I says that every pasmanda person develops his pasmanda leaders. Vote bank developed politics. Politics is the key of society. With politics key can not open any lock of world society. I agree and working for pasmanda muslims on the banner of ALL INDIA PASMANDA MUSLIM MAHAZ.
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