पसमांदा मुस्लिम आरक्षण: रास्ता इधर है

दिलीप मंडल

मुस्लिमों की हालत सुधारने के उपाय सुझाने के लिए गठित रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट भारतीय राजनीति को निर्णायक रूप से प्रभावित करने की क्षमता रखती है। इससे पहले कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने न्यायमूर्ति राजिंदर सच्चर की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाकर मुस्लिमों की स्थिति का अध्ययन कराया था और उससे बाद जस्टिस रंगनाथ मिश्र कमीशन का गठन किया गया। इसकी रिपोर्ट पेश की जा चुकी है। अब इसे लेकर राजनीतिक दांव और जवाबी दांव चलने का दौर शुरू हो गया है। इस रिपोर्ट में कई और बातों के साथ ही मुस्लिमों को नौकरी और शिक्षा में आरक्षण देने की सिफारिश की गई है।

यह सिफारिश अपने आप में उलझाने वाली है। केंद्र सरकार और ज्यादातर राज्य सरकारें पहले से ही अनुसूचित जाति-जनजाति और अन्य पिछड़े वर्गों को कुल मिलाकर 49.5 फीसदी या इसके आस-पास आरक्षण दे रही है (तमिलनाडु में 69% आरक्षण है)। केंद्र सरकार की नौकरियों और शिक्षा संस्थानों में ओबीसी के लिए 27 फीसदी आरक्षण है। अब केंद्र सरकार यह कह रही है कि वह मुसलमानों को इसी 27 फीसदी के अंदर कोटा देगी। अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री सलमान खुर्शीद ने कहा है कि पिछड़े मुसलमानों को सरकार ओबीसी कोटे के अंदर आरक्षण देगी।

मुसलमानों के आर्थिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन को लेकर विवाद की गुंजाइश नहीं है। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आने से पहले भी इसमें शक नहीं था कि विकास की दौड़ में मुसलमान पीछे रहे गए हैं। हालांकि सच्चर और रंगनाथ की रिपोर्ट यह नहीं बतातीं कि मुसलमानों के बीच तीन प्रमुख जातीय श्रेणियों अशराफ, अजलाफ और अरजाल की अलग अलग स्थिति क्या है। अशराफ मुस्लिमों की अगड़ी जातियां हैं जबकि अजलाफ वह श्रेणी है जिसमें हिंदू शूद्र जातियां हैं जबकि अरजाल मुस्लिमों के अंदर के दलित तबके हैं। चूंकि मुसलमानों में दलित होने की अवधारणा को संविधान या विधि की मान्यता नहीं है, इसलिए अजलाफ और अरजाल को मिलाकर एक श्रेणी के अंदर रखने का चलन बढ़ा है। इस श्रेणी को पसमांदा यानी पीछे रह गए समुदाय कहा जाता है।

पसमांदा मुसलमानों को मंडल कमीशन के तहत और उससे पहले भी राज्य सरकारों के बीसी (बैकवर्ड क्लासेज) या ओबीसी (अदर बैकवर्ड क्लासेज) श्रेणी के तहत आरक्षण मिलता रहा है। हालांकि मुस्लिमों को इस आरक्षण का सीमित लाभ ही मिला है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि ओबीसी कोटा ईमानदारी से लागू नहीं किया गया है और इसमें भारी बैकलॉग (खाली स्थान) है। मिसाल के तौर पर, केंद्र सरकार की नौकरियों में ओबीसी की संख्या अभी भी 6 फीसदी से कम है। मुसलमानों की नौकरियों में कम संख्या होने का एक कारण ओबीसी कोटा पूरा न होना भी है। इसी तरह शिक्षा में ओबीसी आरक्षण भी लागू नहीं किया जा रहा है। मिसाल के तौर पर 2009-2010 में दिल्ली विश्वविद्यालय में 5400 से ज्यादा ओबीसी सीटों को नहीं भरा गया और उन्हें सवर्ण छात्रों से भरा गया। ओबीसी कोटा लागू न होने की स्थिति में इसी कोटे से हिस्सा ले रहे मुसलमानों को भी वंचित रहना पड़ रहा है।

अब जबकि इस बात को लेकर बीजेपी और शिवसेना के अलावा सभी दलों में आम राय बनने लगी है कि मुसलमानों के विकास के लिए विशेष प्रयास किए जाने चाहिए, तो इसके तरीके पर चर्चा शुरू हो गई है। रंगनाथ मिश्र कमीशन की सिफारिशों में आरक्षण की बात है और उसे लागू करने के लिए सरकार पर दबाव बढ़ने लगा है। सरकार इसे जिस तरह से लागू करने की बात कर रहे है उसे तकनीकी और राजनीतिक दोनों रूप में देखा जाना चाहिए।

कांग्रेस के लिए पिछले दो दशकों में उत्तर भारत की सबसे बड़ी समस्या पिछड़ों और मुसलमामों की एकता है। उत्तर भारत के दो बड़े राज्यों उत्तर प्रदेश और बिहार में पिछले दो दशक से कांग्रेस बुरे हाल में है। इसकी एक वजह इन दो समुदायों की बनती-बिगड़ती राजनीतिक एकता भी है। हालांकि इस एकता में कई बार दरारें पड़ी हैं और कई नए समीकरण बने हैं, लेकिन पिछले दो दशक में दोनों समुदायों के बड़े हिस्से आम तौर पर कांग्रेस के खेमे से बाहर रहे हैं। गैर-कांग्रेसवाद के दो बड़े प्रतिनिधि नेता लालू प्रसाद और मुलायम सिंह यादव इस समीकरण के बूते काफी समय तक सत्ता में बने रहे। उत्तर प्रदेश में मायावती को भी पिछड़े और मुस्लिम वोट का एक हिस्सा मिलता है। दलित वोट के साथ इनके जुड़ने से चुनाव जीतने का समीकरण बन जाता है।

अब रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट को कांग्रेस जिस तरीके से लागू करने की बात कर रही है, उससे हिंदू ओबीसी और मुस्लिम ओबीसी के बीच दरार पैदा हो सकती है। मुसलमानों के बीच यह बात अब गहराई तक पहुंच गई है कि उनकी राजकाज और अवसरों के मामले में बुरी स्थिति है और इसे ठीक करने के लिए आरक्षण चाहिए। लेकिन यह आरक्षण जब ओबीसी कोटे के अंदर से देने की बात होगी तो उनके हितों का सीधा टकराव हिंदू ओबीसी समूहों के साथ होगा। बीजेपी ने स्पष्ट कर दिया है कि रंगनाथ की सिफारिशों के आधार पर अगर ओबीसी कोटे से मुस्लिमों को अलग से हिस्सा देने की कोशिश की गई तो वह विरोध में आंदोलन करेगी।

बीजेपी के कुछ नेता तो यह मान रहे हैं कि रामजन्मभूमि आंदोलन के बाद यह अब तक का सबसे बड़ा मुद्दा है, जिसपर हिंदुओं के एक बड़े हिस्से को गोलबंद किया जा सकता है। बीजेपी ने इसकी तैयारी शुरू भी कर दी है। रंगनाथ कमीशन और ओबीसी कोटे से काटकर मुस्लिमों को आरक्षण देने की चर्चा जैसे-जैसे तेज होगी, बीजेपी अपनी मुहिम को भी आगे बढ़ाएगी। रामजन्मभूमि आंदोलन के बाद बीजेपी में ओबीसी जातियों की फिर से बड़े पैमाने पर वापसी हो सकती है। वैसे भी बीजेपी के पास ओबीसी नेताओं की अच्छी कतार है, जिसमें नरेंद्र मोदी, शिवराज सिंह चौहान, विनय कटियार, गोपीनाथ मुंडे, सुशील कुमार मोदी, ओम प्रकाश सिंह, हुक्मदेव नारायण यादव आदि शामिल हैं। उमा भारती और कल्याण सिंह भी बीजेपी में लौट सकते हैं।

एक तरफ बीजेपी इस मुद्दे पर हिंदू कार्ड खेलेगी, दूसरी तरफ कांग्रेस मुस्लिम कार्ड खेल रही है। कांग्रेस एक बार फिर से नेहरू-इंदिरा के जमाने का सवर्ण(ब्राह्मण)-दलित-मुसलमान ध्रुवीकरण बनाने की कोशिश कर रही है। राहुल गांधी के सहारे वह दलित जनाधार में फिर से पैठ बनाने की कोशिशों में पिछले कई साल से जुटी है। बाबरी मस्जिद गिराए जाने और उसके बाद हुए दंगों के कारण मुस्लिमों में कांग्रेस को लेकर संशय था, जो अब कम हो रहा है। आरक्षण के सवाल पर कांग्रेस अगर पहल करती हुई दिखती है, ओर बीजेपी हिंदू ध्रुवीकरण की कोशिशों को तेज करती है, तो मुसलमानों का बड़ा हिस्सा कांग्रेस के साथ जा सकता है। इस तरह वोटों का ध्रुवीकरण हुआ तो तीसरा मोर्चा या जनता दली-समाजवादी नामधारी दलों और संभवत: बीएसपी को भी बड़ा नुकसान होगा। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति कांग्रेस और बीजेपी को फायदा पहुंचाएगी।

सामाजिक संदर्भों में देखें तो सलमान खुर्शीद के फॉर्मूले के आधार पर मुसलमानों को कोटा देने का सबसे बड़ा नुकसान ओबीसी को होगा। अभी स्थिति यह है कि ओबीसी कोटा न तो सरकारी नौकरियों में और न ही शिक्षा संस्थानों में लागू किया जा रहा है। संविधान के 93वें संशोधन के तहत ओबीसी कोटा निजी शिक्षा संस्थानों में भी लागू किया जाना है। लेकिन संविधान संशोधन हुए चार साल बीतने के बाद भी इस मसले पर सरकार एक कदम भी आगे नहीं बढ़ी हैं। ओबीसी कोटा लागू होने का जब यह हाल है तो इसी कोटे के अंदर एक और हिस्सा करने का कोई मतलब नहीं है।

ऐसी स्थिति में जो लोग यह नहीं चाहते हैं कि आरक्षण के सवाल पर देश में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हो, उनके पास वैकल्पिक रास्ता क्या है? दरअसल ऐसी कई समस्याओं की जड़ इस बात में है कि ओबीसी की बड़ी आबादी के हिसाब से इस समय उन्हें काफी कम कोटा मिल रहा है। मंडल कमीशन ने कहा था कि देश में ओबीसी आबादी 52 फीसदी है। इसके लिए कोई नया आंकड़ा न होने के कारण 1931 की जनगणना के आंकड़ों को आधार बनाया गया था। चूंकि गरीब समुदायों में ज्यादा बच्चे पैदा करने का चलन है और ओबीसी आम तौर पर आर्थिक रूप से भी कमजोर हैं, इसलिए यह माना जा सकता है कि ओबीसी की आबादी 52 फीसदी से ज्यादा होगी। साथ ही मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के बाद कई और जातियों को ओबीसी कटेगरी के शामिल किया गया है। इसलिए यह मानकर चलने का तार्किक आधार है कि देश की 60 फीसदी से ज्यादा आबादी ओबीसी है। इस संख्या के जाहिर होने के भय से ही इस देश में जातिवार जनगणना के विचार का जातिवादी लोग विरोध करते हैं।

ओबीसी की 52 फीसदी आबादी के लिए मंडल कमीशन से 27 फीसदी आरक्षण की सिफारिश की क्योंकि अनुसूचित जाति और जनजाति को पहले से ही उनकी आबादी के अनुपात में 22.5 फीसदी आरक्षण दिया जा रहा था और सुप्रीम कोर्ट के बालाजी केस में फैसले की वजह से सरकार ने तय किया कि कुल आरक्षण 50 फीसदी से ज्यादा नहीं होना चाहिए। हालांकि सरकार के पास हमेशा यह विकल्प है कि संसद में कानून पारित करके आरक्षण पर लगी 50 फीसदी की सीमा को हटा दे। इसी देश के संविधान और कानून के तहत तमिलनाडु में 69 फीसदी आरक्षण दिया जा रहा है। बालाजी केस का फैसला अगर तमिलनाडु पर लागू नहीं होता तो यह किसी भी और राज्य तथा केंद्र पर भी लागू नहीं होगा। केंद्र सरकार के सामने संसद में कानून बनाकर उसे नवीं अनुसूचि में डालने का रास्ता खुला है, ताकि इस कानून को कानूनी समीक्षा से परे रखा जाए।

अगर ओबीसी आरक्षण को बढ़ाकर ओबीसी की आबादी के अनुपात में यानी 60 फीसदी कर दिया जाए, तो उसके अंदर पसमांदा मुसलमानों के लिए सब-कोटा (उप-श्रेणी) बनाने में कोई दिक्कत नहीं होगी। ओबीसी आरक्षण का कुल हिस्सा बढ़ाकर और कोटा को सख्ती से लागू करके इस देश के संसाधनों और अवसरों के सुसंगत और न्यायपूर्ण बंटवारे की दिशा में कदम बढ़ाया जा सकता है। अभी इस मामले में जबर्दस्त सामाजिक असंतुलन है। नौकरशाही, न्यायपालिका और शिक्षा के क्षेत्र में ऊपर के पदों पर दलित और आदिवासी तो फिर भी नजर आते हैं लेकिन देश की आधी से ज्यादा ओबीसी आबादी इन स्थानों में अनुपस्थित है। रंगनाथ मिश्र कमीशन के पीछे कांग्रेस की मंशा चाहे जो भी हो, लेकिन इसके बहाने देश में ओबीसी कोटा बढ़ाने की बहस शुरू हो सकती है। सामाजिक न्याय की दिशा में यह एक सकारात्मक हस्तक्षेप साबित हो सकता है।

0 comments

Posts a comment

 
© Indian Dalit Muslims' Voice
Back to top