मंडल आयोग की अनुशंसा को लागू करने की घोषणा के बाईस वर्ष (०७ अगस्त, १९९० – ०७ अगस्त, २०१२) ०७ अगस्त को राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर सामाजिक न्याय दिवस घोषित करो
![]() |
B. P. MANDAL |
०७ अगस्त, १९९० न केवल समकालीन इतिहास बल्कि देश के तीन हज़ार सालों के इतिहास का एक महत्वपूर्ण दिन है. यह दिन १५ अगस्त, १९४७ से भी ज्यादा मायने रखता है. भारत के तीन हज़ार सालों का इतिहास विदेशी गुलामियों का इतिहास रहा है. एक विदेशी शासन के बाद दूसरा विदेशी शासन आया किन्तु भारत की सामाजिक व्यवस्था परिवर्तनहीन रही. १५ अगस्त, १९४७ को देश आज़ाद जरूर हुआ किन्तु देश की नब्बे प्रतिशत दलित-पिछड़ी और आदिवासी जनता को इससे कुछ खास नहीं मिला. सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और राजनीतिक शोषण में कोई कमी नहीं आई. सामाजिक न्याय और परिवर्तन का एजेंडा राष्ट्रीय स्तर पर अपनी आवाज़ नहीं सुना पाता था. ०७ अगस्त, १९९० को प्रधान मंत्री वी पी सिंह ने जैसे ही देश की संसद में मंडल आयोग की मात्र एक अनुशंसा, केन्द्र सरकार की नौकरियों में शूद्र जातियों को सत्ताईस प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था, को लागू करने की घोषणा किया तो जैसे एक झटके में सामाजिक न्याय और परिवर्तन का एजेंडा राष्ट्रीय फलक पर छा गया.
दलितों-आदिवासियों के लिए आरक्षण १९४७ के पहले से मौजूद है. किन्तु इनकी आबादी कम होने के चलते इनके लिए आरक्षण सामाजिक न्याय और परिवर्तन के एजेंडा को राष्ट्रीय स्तर पर ला पाने में अक्षम था. परिमाण किसी वस्तु में गुणात्मक परिवर्तन लाता है. जब १९९० में मंडल के माध्यम से देश की बावन प्रतिशत आबादी को आरक्षण की परिधि में लाया गया तो तीनों आरक्षित श्रेणियों को मिलाकर १९३१ की जनगणना के अनुसार लगभग ७५ प्रतिशत से अधिक आबादी आरक्षण की परिधि में आ गयी. इसके चलते सामाजिक न्याय और परिवर्तन का एजेंडा राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित करने की स्थिति में आ गया.
बीसवीं सदी के भारत का इतिहास आरक्षण के समर्थक और विरोधी शक्तियों के बीच संघर्षों का इतिहास है. जाति व्यवस्था जो सत्ता, संपत्ति और सम्मान पर मुट्ठी भर जातियों के एकाधिकार पर टिका हुआ है को खत्म करने के लिए एक कारगर उपाय के रूप में सरकारी नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण देने का काम सबसे पहले १९०२ में महाराष्ट्र में कोल्हापुर रियासत के राजा शाहू जी महाराज ने किया था. इसके बाद इसे मद्रास प्रेसीडेंसी में जस्टिस पार्टी की ब्रिटिशकालीन सरकार और आगे चलकर पूरे देश में अलग-अलग राज्यों ने अलग-अलग समय पर सरकारी नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण लागू किया. जहाँ कहीं भी आरक्षण लागू हुआ वहाँ सामाजिक एकाधिकारवादी ग्रूपों द्वारा विधान सभा, संसद और सड़क से लेकर क़ानून की अदालतों में इसका जोरदार विरोध किये जाने के बावजूद भारत की न्यायपालिका ने हर हमेशा जाति आधारित आरक्षण को संविधान सम्मत घोषित किया. आरक्षण के मोर्चे पर विरोधियों की हमेशा हार हुई है और हम हमेशा जीतते आये हैं. इसी बिंदु पर फैज़ अहमद फैज़ की पंक्ति याद आती है: यूं ही हमने हमेशा खिलाए हैं आग में फूल, न उनकी हार नयी है, न हमारी जीत नयी. इसका यह मतलब नहीं है कि उन्हें आरक्षण के कारवां को रोकने में कोई सफलता नहीं मिली है. ओबीसी आरक्षण में क्रीमी लेएर लागू होना उनकी ऐसी ही एक सफलता है.
आरक्षण ने सत्ता, संपत्ति और सम्मान पर चंद जातियों के एकाधिकार को तोड़कर इसके दलित, आदिवासी, अति पिछड़ी और पिछड़ी जातियों के बीच विकेन्द्रीकरण की प्रक्रिया को पैदा किया है. इससे भारतीय समाज और राजनीति (शासन और प्रशासन) के लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया को बल मिला है. कुछ लोग आरक्षण को गरीबी, बेरोजगारी और अशिक्षा दूर करने का उपाय समझते हैं जो आरक्षण के सिद्धांत का अतिसरलीकरण है. आरक्षण की ऐसी व्याख्या जान-बूझकर की जाती है ताकि क्रीमी लेएर की अवधारणा को सही ठहराया और आर्थिक आधार पर आरक्षण का मार्ग प्रशस्त कर जाति आधारित आरक्षण को खत्म किया जा सके. आरक्षण यदि गरीबी, बेरोजगारी और अशिक्षा दूर करने का उपाय होता तो राज्य और केन्द्र सरकार की गरीबी, बेरोजगारी और अशिक्षा उन्मूलन की ढेरों योजनाओं और आरक्षण में कोई अंतर नहीं रहता और तब आरक्षण सरकारी योजनाओं की तरह सर्वमान्य अवधारणा होता. किन्तु आरक्षण कभी भी सर्वमान्य अवधारणा नहीं है. यह सामाजिक एकाधिकारवादी ग्रूपों का सतत विरोध झेलता है. आरक्षण ने जाति व्यवस्था को किसी भी अन्य आंदोलन की तुलना में ज्यादा नुकसान पहुँचाकर समता की अवधारणा को मजबूत किया है. आज यदि आरक्षण को खत्म कर दिया जाए तो भारतीय समाज एक झटके में सौ साल पीछे चला जाएगा जब दलित अपने कमर में झाडू बाँध कर चलते थे, आदिवासी नगर सभ्यता से दूर रहते थे और शूद्र जातियाँ प्रताड़ना और वंचना की शिकार थी. एक आधुनिक और लोकतांत्रिक देश के रूप में भारत की आज जो पहचान बनी है उसके कई कारक (पब्लिक सेक्टर, फ्री प्रेस, संसदीय लोकतंत्र, विदेश नीति में गुटनिरपेक्षता, क़ानून और संविधान की प्रतिष्ठा आदि) हैं जिसमें आरक्षण का बेहद महत्वपूर्ण स्थान है. आरक्षण के चलते दलित, आदिवासी, अति पिछड़ी, पिछड़ी जातियों में एक मध्यम वर्ग तैयार हुआ है जिसके चलते सीमित संख्या के सवर्ण मध्यम वर्ग के बाहर भारतीय बाजार का विस्तारीकरण हुआ है जिससे भारतीय अर्थव्यवस्था को न केवल मजबूती मिली है बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर यह बड़ी अर्थव्यवस्थाओं से प्रतिस्पर्धा भी कर रहा है. यही कारण है कि सामाजिक एकाधिकारवादी ग्रूपों से आने वाले उदारवादी और दूरदृष्टिसम्पन्न बुद्धिजीवियों, राजनीतिज्ञों और न्यायधीशों ने जाति आधारित आरक्षण को मान्यता प्रदान किया है.
आज भारतीय अर्थव्यवस्था फिर से संकटग्रस्त हो रही है. इसकी तरह-तरह की व्याख्याएं आ रही हैं जिनसे हमारा तो वैसे कोई मतभेद नहीं है किन्तु इस आधार-पत्र के माध्यम से हम भारतीय अर्थव्यवस्था के संकटग्रस्त होने की अपनी व्याख्या संक्षेप में प्रस्तुत करना चाहते हैं. कोई भी अर्थव्यवस्था तभी लंबे समय तक मजबूत बनी रहती है जब बाजार में मांग भी बनी रहती है. भारत सरकार और राज्य सरकारें जब तक देश की अस्सी प्रतिशत आबादी, जो दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों की है, को गरीबी, पिछडापन और अशिक्षा से उबारने के लिए ठोस मेगा योजना तैयार नहीं करती है तब तक अर्थव्यवस्था की गति को दीर्घ काल तक सस्टेन करने के लिए मांग पैदा नहीं किया जा सकता है. इसके बगैर सरकार चाहे जो वित्तीय उपाय कर ले अर्थव्यवस्था वापस पटरी पर नहीं आ सकती है. आरक्षण सामाजिक न्याय का एक उपाय है किन्तु यह आर्थिक न्याय के बगैर अधूरा है. भारत के संविधान की प्रस्तावना में भारत के नागरिकों को सामाजिक न्याय के साथ आर्थिक और राजनीतिक न्याय प्रदान करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है. संसार की सभी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं की कामयाबी का कारण रहा है कि वहाँ के शासक वर्गों ने अपने देश के लोगों की गरीबी और पिछड़ेपन को दूर कर आर्थिक तरक्की का मार्ग प्रशस्त किया. भारत का शासक वर्ग देश की बहुसंख्यक जनता को गरीबी और पिछड़ेपन की स्थिति में सतत रखकर सीमित सवर्ण मध्यम वर्ग से बने बाजार के आधार पर भारत को महान बनाने का सपना देखता है जो असंभव है.
आजादी के बाद देश की प्रशासनिक व्यवस्था में कोई परिवर्तन नहीं किया गया. आजादी के पैंसठ सालों के बाद भी भारत में औपनिवेशिक काल में तैयार किया गया प्रशासनिक ढांचा चल रहा है जो देश के लोकतांत्रिक ढांचा के प्रतिकूल है. प्रशासनिक तंत्र में सामाजिक एकाधिकार प्रशासन को अलोकतांत्रिक, असहिष्णु, भ्रष्ट, अयोग्य, अक्षम, पक्षपाती तथा जनता के लोकतांत्रिक संघर्षों के प्रति असहिष्णु बनाता है, जनता से दूर करता है. प्रशासन तंत्र के विभिन्न स्तरों एवं अंगों में जब खास सामाजिक समूहों का एकाधिकार होता है तो अधिकारियों और कर्मचारियों के दिमाग में बात घर कर जाती है कि वे कुछ भी करें उनका बाल बांका नहीं होगा. तरक्की का आधार तब कर्मठता, ईमानदारी और कार्यकुशलता नहीं होकर जाति संबंध हो जाता है. ऐसी प्रशासनिक व्यवस्था जनता पर अकथनीय कष्ट लादती है, उनके संवैधानिक और क़ानूनी अधिकार क़ानून व्यवस्था का हवाला देकर कुचला जाता है. नौकरशाही तब मालिकशाही में बदल जाता है.
आरक्षण के माध्यम से समाज के पीछे छूट चुके सामाजिक जमातों से आने वाले अधिकारियों और कर्मचारियों की नियुक्ति के चलते प्रशासन अपने मौजूदा औपनिवेशिक ढाँचे में भी आम अवाम के ज्यादा नजदीक पहुँचा है. आरक्षण के चलते जब दलित, आदिवासी और पिछड़ी जातियों के युवक-युवती प्रशासन तंत्र की जिम्मेदारी सम्हालते हैं तो प्रशासन तंत्र ज्यादा लोकतांत्रिक चरित्र ग्रहण करता है, जनता के जनतांत्रिक संघर्षों के लिए परिस्थितियां ज्यादा अनुकूल बनती है तथा जनता के संघर्षों के प्रति प्रशासन का दमनात्मक चरित्र कमजोर पड़ता है. आरक्षण प्रशासन तंत्र में सामाजिक एकाधिकार को तोड़कर इसे सामाजिक संरचना के अनुरूप तथा ज्यादा खुला, उन्मुक्त, भागीदारीपूर्ण तथा प्रतिनिधिपूर्ण (more open, more free, more participatory and more representative) बनाने का एक कारगर औजार है. आरक्षण के तमाम जनपक्षीय उपलब्धियों के बावजूद हम इस तथ्य से इनकार नहीं कर सकते कि नौकरशाही और आम जनता के बीच दूरी आज भी कायम है. इसके दो कारण प्रतीत होते हैं: (i) देश और राज्यों के शासन-प्रशासन की बागडोर केन्द्र सरकार द्वारा चयनित और नियुक्त ग्रुप ए अधिकारियों के हाथ में होती है. केन्द्र सरकार की नौकरियों में ओबीसी आरक्षण के देर से लागू होने और लागू होने के बाद उसके कार्यान्वयन में आरक्षण विरोधियों द्वारा तमाम तरह की बाधा खड़ी करने से आरक्षित वर्गों से आने वाले ग्रुप ए अधिकारियों की कमी महसूस की जा रही है. (ii) औपनिवेशिक काल के विरासत के रूप में प्राप्त प्रशासनिक ढाँचे में कोई तब्दीली (Structural Change) नहीं लाने से भी शासन-प्रशासन और आम जनता के बीच दूरी बनी हुई है.
भारत में दलित-पिछड़ा-आदिवासी राजनीतिकों की राजनीति में जो दस्तक सुनायी पड़ रही है वह आरक्षण की राजनीति के चलते संभव हुआ है. जब-जब किसी राज्य में आरक्षण लागू हुआ है उन राज्यों में निम्न जातियों का सामाजिक-राजनीतिक जागरण हुआ है और सत्ता की राजनीति में उनके राजनीतिकों ने अपना दावा मजबूत किया है. बिहार के संदर्भ में हमारे पास कई उदाहरण हैं जो बताते हैं कि आरक्षण की राजनीति से दलित-पिछड़ों की राजनीति को बार-बार संवेग प्राप्त हुआ है. सबसे पहला उदाहरण डॉ राम मनोहर लोहिया के नारे ‘पिछड़ा पावे सौ में साठ’ का है जिसने पिछड़ों को गोलबंद किया और बिहार में पहली बार एक गैर कांग्रेस सरकार बनी और उस सरकार में अत्यंत पिछड़ी जाति में पैदा लिए कर्पूरी ठाकुर उप मुख्य मंत्री बने. दूसरा उदाहरण शहीद जगदेव प्रसाद के नारे “ सौ में नब्बे शोषित है, नब्बे भाग हमारा है ” का है. इस नारे के बदौलत बिहार में शोषित दल की सरकार बनी और पिछड़ी जाति में पैदा लिए सतीश प्रसाद सिंह और बी पी मंडल बिहार के शोषित समाज के पहले मुख्य मंत्री बने. तीसरा उदाहरण जननायक कर्पूरी ठाकुर का है जिनकी सरकार के द्वारा १९७८ में लागू आरक्षण ने पिछड़ों और अत्यंत पिछड़ों में सामाजिक-राजनीतिक चेतना का विस्फोट किया. चौथा उदाहरण १९९० में मंडल आयोग की अनुसंशा को लागू करना है जिसने अखिल भारतीय स्तर पर पिछड़ी जातियों को राजनीति की मुख्य धारा में लाने का काम किया. यह मंडल की देन है कि लालू यादव की सरकार पन्द्रह वर्षों तक चलती रही और उनके बाद नीतीश कुमार सत्ताशीन हुए. पाँचवां उदाहरण नीतीश सरकार द्वारा स्थानीय स्वशासन निकायों में अति पिछड़ों, महादलितों और औरतों को आरक्षण देना है जिसने इस सरकार को २०१० में अभूतपूर्व जनादेश प्रदान किया. जब जब आरक्षण की राजनीति मजबूत होती है तब तब दलितों-पिछड़ों और आदिवासियों की राजनीतिक दावेदारी भी मजबूत होती है.
यह मंडल की देन है कि आज पूरे देश की राजनीति में पिछड़ों की पूछ हो रही है. घनघोर रूप से सवर्ण मानसिकता से ग्रष्त नेतृत्व वाले दलों को भी पिछड़े राजनीतिकों को आगे करके राजनीति करनी पड़ रही है. मंडल की उपलब्धि केवल इतनी ही नहीं है कि सवर्ण वर्चस्व वाले राजनीति में पिछड़ों की प्रधानता को पैदा किया. इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है कि मंडल के चलते जाति का सवाल सामाजिक-राजनीतिक विमर्श के केन्द्र में आ पहुँचा जो सामाजिक शोषण और उत्पीडन से दलितों-पिछड़ों की मुक्ति की पहली शर्त है. मंडल के पहले सामाजिक-राजनीतिक विमर्श में जाति का सवाल हाशिए पर था. अंग्रेजी राज से मुक्ति संघर्ष में जाति के सवाल को दलित-पिछड़े नायकों ने जोरदार तरीके से उठाया किन्तु मुख्य धारा की राजनीति और सामाजिक-राजनीतिक विमर्श पर जिनका वर्चस्व था उन्होंने जाति के सवाल को सतह से ऊपर उठने नहीं दिया. जाति व्यवस्था आधारित भारतीय समाज में वर्गीय दृष्टिकोण से समाज, राजनीति और संस्कृति के सवालों को विश्लेषित करने की प्रथा सवर्ण वामपंथी और उदार पूंजीवादी बुद्धिजीविओं ने विकसित कर ली थी. मंडल ने इस प्रथा को जोरदार चुनौती दिया. आज सवर्ण बुद्धिजीवी भी जाति के सवाल को महत्व देने के लिए विवश हैं. उन्हें इस बात का डर है कि यदि उन्होंने जाति के सवाल को नज़रंदाज़ किया तो उनपर जातिवादी और सतही होने का आरोप चस्पा हो जाएगा.
सवर्ण बुद्धिजीवीगण प्रायः ही मंडल पर समाज को विभाजित करने का आरोप लगाते हैं किन्तु वे भूल जाते हैं कि मंडल ने समाज को जितना विभाजित किया उससे ज्यादा एकता का निर्माण किया. अंग्रेजी राज से आजादी की लड़ाई के दौरान राष्ट्रीय एकता के लिए जो हासिल किया गया उसके बाद यदि भारत की राष्ट्रीय एकता को किसी ने सबसे ज्यादा मजबूत बनाया है तो वह मंडल है. मंडल ने देश की बावन प्रतिशत आबादी को चाहे वह कोई भी धर्म मानते हों या भाषा बोलते हों को एक नाम, ओबीसी, एक पहचान, ओबीसी, और एक चेतना, ओबीसी, दिया. आज उत्तर भारत, दक्षिण भारत, पश्चिम भारत और पूर्वी भारत के पिछड़े अपने को ओबीसी कहते हैं और आपस में एक जगह बैठकर मशविरा करते हैं. मंडल के पहले यह संभव नहीं था. जो लोग मंडल पर समाज को विभाजित करने का आरोप लगाते हैं उन्हें नहीं भूलना चाहिए कि मंडल ने कमंडल की हवा निकालकर देश को साम्प्रदायिक फासीवाद के भयावह दौर में जाने से बचा लिया. यह मंडल ही था जिसके प्रभाव ने साम्प्रदायिक दलों को क्षेत्रीय सेक्यूलर दलों से समझौता करने के लिए मजबूर किया अन्यथा वह अकेले ही केंद्रीय सत्ता पर काबिज होने के लिए अग्रसर था. मंडल के चलते सामाजिक न्याय के लिए लड़ाई ने पूरे देश की दलित पिछड़ी जनता को प्रेरित किया है जिसके चलते क्षेत्रवाद कमजोर हुआ है. सामाजिक न्याय के लिए लड़ाई मुस्लिम समाज में भी छिड चुकी है जिसके चलते मुस्लिम कट्टरपन्थ को समाज के भीतर से चुनौती मिल रही है. मुस्लिम समाज के दलित और पिछड़े कबीराना अंदाज़ में ‘दलित पिछड़ा एक समाना, हिंदू हो या मुसलमाना’ नारा बुलंद करते हुए पसमांदा पहचान के तहत अपने को संगठित कर रहे हैं. यही परिघटना सिख और ईसाई समाज में भी परिलक्षित हो रहा है.
मंडल ने अपने विरोधियों को भी आपस में जोड़ा है. बिहार में तथाकथित अगड़ी जातियों में आपसी द्वेष जगजाहिर रहा है. मंडल के विरोध ने जातीय-वर्गीय हितों के तहत उन्हें आपस में ज्यादा नजदीक लाया है. इसका एक अच्छा परिणाम यह हुआ है कि उनमें आपस में अंतर्जातीय विवाह अधिकाधिक हो रहे हैं और उनको सामाजिक स्वीकृति भी मिल रही है. निश्चय ही इसकी एक बड़ी वजह बढ़ती आधुनिकता भी है किन्तु मंडल के पहले आधुनिकता की यही हवा स्वीकार्य नहीँ थी. भारतीय समाज में अक्सर ही निम्न जातियां उच्च जातियों के उदाहरणों का अनुकरण करती है. हम ऐसी उम्मीद करते हैं कि निम्न जातियों में भी अंतर्जातीय विवाहों का सिलसिला शुरू होगा.
मंडल ने नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण के माध्यम से सामाजिक एकाधिकार पर चोट पहुँचा कर, जाति के सवाल को केन्द्र में लाकर, सामाजिक न्याय को हासिल करने की इच्छा पूरे देश में फैलाकर और अंतर्जातीय विवाहों को पहले किसी भी समय की अपेक्षा ज्यादा स्वीकार्य बनाकर जाति व्यवस्था को संकट में डाल दिया है. बुद्ध के बाद भारत के इतिहास में मंडल ने वह दौर लाया है जब जाति व्यवस्था एक बार फिर संकटग्रस्त दिखाई दे रही है. बुद्ध की क्रांति के बाद प्रतिक्रांति का एक दौर आया था जिसने जाति व्यवस्था को ढहने से बचा लिया. क्या मंडल जनित सामाजिक क्रांति की प्रक्रिया पर भी प्रतिक्रांति का खतरा मंडरा रहा है? इतिहास सीधी रेखा में नहीं बल्कि धक्के और हिचकोलों के बीच से आगे बढ़ता है. प्रतिक्रांति की आशंका को खारिज करना खतरे से खाली नहीं होगा. सभी धर्मों का कट्टरवादी सामाजिक एकाधिकारवादी तबका निम्न तबकों में आ रहे सामाजिक जागृति के खिलाफ है. प्रतिक्रांति के सम्भावित रास्तों और उनके समाधान की पहचान करनी होगी:
१. संसद, संविधान और कानून द्वारा पारित आरक्षण नियमों और प्रावधानों की खुद सरकारी संस्थाओं के सवर्ण मानसिकता के अधिकारियों द्वारा धज्जियाँ उड़ाई जा रही है. किसी भी केंद्रीय विश्वविद्यालय में आरक्षण नियमों का सही पालन नहीं किया जा रहा है. नामांकन में पचास प्रतिशत के भीतर सभी दलित-आदिवासी-पिछड़े छात्र-छात्राओं को निबटाने की कोशिश की जाती है. इस प्रकार अगड़ों के लिए अघोषित रूप से पचास प्रतिशत आरक्षण सुरक्षित कर ली जा रही है. केंद्रीय विश्वविद्यालय में शिक्षकों की नियुक्ति में दलित-आदिवासी-पिछड़े उम्मीदवार अयोग्य घोषित कर दिए जाते हैं और उनकी जगहों पर अगड़े उम्मीदवार चयनित हो जाते हैं. कुछ इसी तरह की हरकतें सिविल सेवा की परीक्षा में संघ लोक सेवा आयोग करता है. अदालत से अपने पक्ष में निर्णय ले आने के बाद भी उम्मीदवारों को टहलाया जाता है. केन्द्र सरकार की स्वायत्त संस्थाओं में आरक्षण नियमों का उल्लंघन ज्यादा देखने के लिए मिल रहा है. किन्तु सरकार और विपक्ष जिनमें दलित-आदिवासी-पिछड़े की नुमाइंदगी करनेवाले राजनीतिक दल भी शामिल हैं पूरे मामले पर निष्क्रिय और चुप हैं.
२. कुछ राजनीतिक दल जिनमें विशेषकर वैसे राजनीतिक दल हैं जो दलितों-पिछडों की नुमांइदगी करने वाले समझे जाते हैं आर्थिक आधार पर आरक्षण की अक्सर वकालत करते सुने जाते हैं. ऐसा वे चुनाव जीतने के गरज से सवर्ण वोट के लिए करते हैं. आर्थिक आधार पर आरक्षण जाति आधारित आरक्षण के लिए मौत का वारंट है.
३. अगड़े मुसलमानों के दवाब में कुछ राजनीतिक दल मुस्लिम वोट पाने के लिए सभी मुसलमानों के लिए आरक्षण की वकालत करते हैं. मंडल के तहत मुसलमानों की पिछड़ी जातियों को आरक्षण प्राप्त है. सभी मुसलमानों को आरक्षण की मांग अप्रत्यक्ष तरीके से अगड़े मुसलमानों को आरक्षण के तहत लाने के लिए किया जाता है. शुक्र है भारत की न्यायपालिकाओं का जिन्होंने धार्मिक आधार पर आरक्षण को बार-बार गैर-संवैधानिक घोषित किया है. अगड़े मुसलमानों ने जब देखा कि आर्थिक और धार्मिक आधार पर वे आरक्षण की हद में नहीं आ सकते हैं तो उन्होंने कोशिश शुरू कर दिया कि सभी मुसलमान पिछड़े घोषित कर दिए जाएँ. बिहार में उन्हें इसमें आंशिक सफलता भी मिली है जब मुस्लिम अगड़ी जाति मलिक को पिछड़ी जाति (अनुसूची-२) में ले लिया गया. इसके खिलाफ हिंदू और मुस्लिम दोनों के पिछडों ने बिहार राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग में प्रतिवाद दायर किया जिस पर आयोग ने मुस्लिम मलिक को पिछड़े वर्ग की सूची से हटाने के लिए सिफारिश किया है. आयोग की सिफारिश सरकार के पास निर्णय के लिए लम्बित है. सभी मुसलमानों के लिए आरक्षण सभी हिंदुओं के लिए आरक्षण का रास्ता साफ़ करता है. इसके अलावा सभी मुसलमानों के लिए आरक्षण मुस्लिम तुष्टिकरण के आरोपों को पुष्ट करता है और सामाजिक न्याय विरोधी साम्प्रदायिक शक्तियों को अपना खेल खेलने का मौक़ा देता है. जहाँ तक जाति आधारित आरक्षण के लिए खतरे का सवाल है, आर्थिक और धार्मिक आधार पर आरक्षण दोधारी तलवार के दो धार हैं.
४. सामाजिक-राजनीतिक विश्लेषण में जाति की तुलना में धार्मिक पहचान को ज्यादा महत्व देना मंडल जनित सामाजिक न्याय और परिवर्तन की प्रक्रिया को नुकसान पहुंचाता है. जिस तरह हम हिंदू समाज को जातियों के एक समुच्चय के रूप में देखते और समझते हैं, उसी नज़र और दृष्टिकोण से मुस्लिम समाज को भी परखना पड़ेगा.
५. सामाजिक न्याय और सोशल इंजीनियरिंग के भेद को पहचानना होगा. सामाजिक न्याय सामाजिक रूप से शोषित, अभिवंचित और उत्पीड़ित जातियों के अधिकारों का नाम है जबकि सोशल इंजीनियरिंग जनता की जाति भावना को भड़काकर और जाति समीकरण बनाकर चुनाव जीतने का जोगाड़ है. आज दलित पिछड़े नेताओं की रुचि सामाजिक न्याय में कम सोशल इंजीनियरिंग में ज्यादा है. सामाजिक न्याय की विरोधी राजनीतिक ताकतें भी दलित-पिछड़े राजनीतिकों को आगे करके सामाजिक इंजीनियरिंग कर रहे हैं और चुनाव जीत रहे हैं. इसके चलते राजनीति आज मुद्दाविहीन हो गयी है. चालाक राजनीतिकों ने सामाजिक इंजीनियरिंग में व्यापक संभावना को पहचान लिया है. राजनीति राजनीति के लिए और सत्ता सत्ता के लिए बन कर रह गया है. साहित्य को समाज का दर्पण माना जाता है. जिस साहित्य में समाज नहीं दिखाई पड़ता वह मनबहलाव और ऐयाशी का साहित्य समझा जाता है. जिस कसौटी पर हम साहित्य को कसते हैं उसी कसौटी पर राजनीति को भी परखने की जरूरत है. राजनीति को भी समाज का दर्पण होना चाहिए. समाज का दुख-दर्द, आशा और आकांक्षा, संघर्ष और जिजीविषा, विरोध और अंतर्विरोध राजनीति में दिखायी पड़नी चाहिए. सामाजिक मुद्दे राजनीति के एजेंडा का हिस्सा होना चाहिए. समाजनीति से राजनीति निकलनी चाहिए किन्तु आज की राजनीति राजनीतिकों की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा और कुंठा का प्रतिबिम्ब ज्यादा है. सिनेमा और क्रिकेट की तरह आज की राजनीति भी ग्लैमर की दुनिया बन गयी है. आज के राजनीतिक जनसेवक कम और क्रिकेटरों और सिनेमा स्टार की तरह सेलेब्रिटी ज्यादा हैं. राजनीति का मकसद सामाजिक अंतर्विरोध का समाधान होना चाहिए जिससे समाज प्रगति की राह पर अग्रसर हो सके किन्तु आज के राजनीतिक सामाजिक अंतर्विरोधों का समाधान तो दूर बल्कि उसके ऊपर अजगर का कुंडली बनाकर बैठे हुए हैं.
६. सामाजिक न्याय के लिए खतरा जितना बाहर से है, उससे कम भीतर से नहीं है. आज चारों ओर ऐसे राजनीतिक दिखाई पड़ रहे हैं जिनके लिए शोर्टकट रास्ते से किसी भी तरह सदन में घुसना राजनीति का पहला और अंतिम लक्ष्य रह गया है. इन्हें विश्वास नहीं है कि जनता के सवालों और सामाजिक न्याय के मुद्दों पर संघर्ष करके सत्ता तक पहुँचा जा सकता है. ऐसे लोग तमाम तरह के समझौते कर अपने जमात के हितों को नुकसान पहुँचा रहे हैं. इनके लिए सत्ता सत्ता के लिए है न कि समाज को बदलने के लिए. इनके लिए सदन की सदस्यता और मंत्रीपद नौकरी के जैसा हो गया है. वे कार्यालय में काम करने वाले बाबुओं की तरह अपने राजनीतिक बौस को किसी भी तरह नाराज़ करने का जोखिम उठाना नहीं चाहते हैं.
७. १९९० में मंडल के खिलाफ जिस तरह कमंडल को उतारा गया उसने साबित कर दिया कि मंडल और कमंडल में सीधा बैर है. सामाजिक न्याय की पांतों को साम्प्रदायिकता के उभार के खिलाफ चौकन्ना रहना होगा. हिंदू-मुस्लिम एकता के पुराने नारे के आधार पर साम्प्रदायिकता का मुकाबला नहीं किया जा सकता है. इसके लिए हमें कबीर की विरासत को जगाना होगा. कबीर की तरह हमें हिंदू और मुस्लिम दोनों धर्मों के कट्टरपंथियों, पोंगापंथियों और सामाजिक प्रतिगामियों से समान दूरी बनाकर चलनी होगी. किसी भी धर्म में व्याप्त कट्टरपंथ, पोंगापंथ और सामाजिक प्रतिक्रियावाद धार्मिक साम्प्रदायिकता को जन्म देता है और एक धर्म की साम्प्रदायिकता अक्सर दूसरे धर्म की साम्प्रदायिकता को प्रेरित करता है. बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता को रोकना और उसकी हिंसा से अल्पसंख्यकों के जान माल की रक्षा करना धर्मनिरपेक्ष राजनीति का प्रथम कर्तव्य है किन्तु साथ ही धर्मनिरपेक्षता के नाम पर अल्पसंख्यकवाद को व्यवहार करना, जो अल्पसंख्यकों में मौजूद कट्टरवादी तत्वों को सहलाने का दूसरा नाम है, धर्मनिरपेक्षता के मूल उसूलों के खिलाफ है, जो अंततः बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता को मजबूत करता है और अल्पसंख्यकों को नुकसान पहुंचाता है. हिंदू और मुस्लिम साम्प्रदायिकताओं को चेकमेट करना सामाजिक न्याय के पांतों की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए.
८. मंडल के अनुसार जाति भारतीय समाज का मूलभूत यथार्थ है. धर्म बदला जा सकता है किन्तु जाति नहीं बदली जा सकती है. जाति का महत्व प्राथमिक है न कि धर्म का. किन्तु सामाजिक न्याय को पटरी से उतारे रखने हेतु धर्म को जाति से ज्यादा प्रमुखता देने के लिए भारत में अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक का निर्धारण जाति के आधार पर नहीं बल्कि धर्म के आधार पर किया गया है. इस निर्धारण ने साम्प्रदायिकता को ज़िंदा रखा है. अब समय आ गया है यह घोषणा करने का कि इस देश में न कोई अल्पसंख्यक और न कोई बहुसंख्यक है क्यों कि देश या प्रदेश स्तर पर कोई भी जाति इतनी संख्या वाली नहीं है कि बहुसंख्यक होने का दर्जा हासिल कर सके.
९. दलित बहुजनों के बीच जातिवाद सामाजिक न्याय की राजनीति के लिए एक बहुत बड़ा खतरा बन गया है. हम देख रहे हैं कि पार्टी के नेता जिस जाति के होते हैं उस पार्टी पर उसी जाति का वर्चस्व स्थापित हो जाता है जिसके खिलाफ दूसरी दलित-पिछड़ी जातियाँ बगावत करती है और फिर टूट-फूट पैदा होती है. कमजोर जातियाँ अपने को उपेक्षित पाती हैं. इस अंतर्विरोध का फायदा सामाजिक न्याय विरोधी राजनीतिक ताकतें उठाती हैं. इसलिए दलित-पिछड़ों के नेतृत्व वाली पार्टियों और उनकी सरकारों को अपने संगठन, सरकार और विधायक-संसदीय दलों में जाति-जमात संतुलन और आंतरिक लोकतंत्र को कड़ाई से बहाल करना होगा अन्यथा उनकी राजनीति हमेशा संकट ग्रस्त बना रहेगी. सामाजिक परिवर्तन को मुद्दा बनाकर राजनीति शुरू करने वाले पहले जातिवाद और फिर वंशवाद करना शुरू करते हैं. जातिवाद और वंशवाद को सुरक्षित रखने के लिए आंतरिक लोकतंत्र को किनारा किया जाता है और पार्टी और सरकार के भीतर सुप्रीमो व्यवस्था लाई जाती है. पार्टी और सरकार के सारे फैसले एक व्यक्ति अपने मनपसंद गुट जो अक्सर पार्टी के अनुभवी और संघर्षशील लोग नहीं होकर सत्ता के दलाल होते हैं से परामर्श करके लेता है. जिस पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र का अभाव है वह पार्टी चाहे सरकार में या सरकार के बाहर हो कभी भी सामाजिक-राजनीतिक लोकतंत्र को पुख्ता बनाने का काम नहीं कर सकती है. ऐसी राजनीति कभी भी सामाजिक परिवर्तन नहीं कर सकती है. सिद्धांतविहीन राजनीति आज सामाजिक न्याय के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गया है.
१०. मंडल ने हमारे लिए क्या किया है, इसको हम जितना समझते हैं उससे हज़ार गुणा ज्यादा वो समझते हैं जिनको लगता है कि मंडल ने उनका नुकसान किया है. मंडल के बाईस वर्षों बाद भी सवर्ण बुद्धिजीवियों का सामाजिक-राजनीतिक विश्लेषण मंडल से शुरू होकर मंडल पर खत्म होता है. किन्तु हमारे सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं और राजनीतिकों को इसका एहसास तक नहीं है. मंडल की ऐतिहासिक भूमिका के बारे में हमारी अज्ञानता हमारे लिए एक खतरा है.
हमारी मांगें:
१. दलितों-पिछड़ों ने पिछले सौ सालों में जो मुकाम हासिल किया है उसके पीछे एक बड़ा कारक अँगरेज़ सरकार द्वारा कराई गयी जाति जनगणना है. स्वतंत्र भारत में जाति के सवाल को नहीं उठने देने के लिए जातिविहीन जनगणना को तिलांजलि दे दी गयी. २०११ की जनगणना भी जातिविहीन करायी गयी. बहुत शोर शराबे के बाद भारत सरकार ने अलग से जाति की गिनती का आदेश दिया है किन्तु उसका भी अता-पता नहीं है. जाति जनगणना का अर्थ किस जाति के कितने लोग हैं की गिनती मात्र करना नहीं है बल्कि अलग-अलग जातियों की सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक स्थिति के बारे में आंकड़ा जुटाना भी है. अपनी सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक स्थिति के बारे में आंकड़े नहीं होने के कारण हमें अपनी स्थिति के बारे में कोई ठोस जानकारी नहीं है. इससे हमारा संघर्ष कमजोर पड़ता है. हम मुकम्मल जाति जनगणना की मांग करते हैं.
२. संविधान का आर्टिकल ३१२ भारत सरकार को भारतीय न्यायिक सेवा बनाने की जिम्मेदारी सौंपता है. किन्तु आज तक इस पर कोई कार्रवाई नहीं की गयी है. हम भारत सरकार से भारतीय न्यायिक सेवा बनाने की मांग करते हैं.
३. ओबीसी आरक्षण में क्रीमी लेएर की रुकावट मंडल की अनुशंसा और संविधान द्वारा निरुपित आरक्षण के सिद्धांत के खिलाफ है. संविधान ने सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन को आरक्षण का आधार माना है. क्रीमी लेएर के प्रावधान ने दो तरीके से हमारा नुकसान किया है. एक तो इसने हमारे समाज के एक हिस्से को आरक्षण से वंचित करके उनमें सामाजिक न्याय के प्रति उदासीनता को पैदा किया है, दूसरा, इससे ओबीसी प्रमाण पत्र बनाने की प्रक्रिया जटिल हो गयी है जिससे कई लोग प्रमाण पत्र नहीं बना पाते हैं. दलितों और आदिवासियों के आरक्षण की तरह ओबीसी आरक्षण में भी क्रीमी लेएर के रूकावट को खत्म करने की हम मांग करते हैं.
४. नौकरी और शिक्षा में ओबीसी आरक्षण को लागू करने में तमाम तरह की बाधाएं खड़ी की जा रही हैं जिसके निराकरण के लिए कोर्ट जाने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं बचता है. हम मांग करते हैं कि केन्द्रीय स्तर पर राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग और राज्य स्तर पर राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग को अनुसूचित जाति आयोग की तरह अधिकार सम्पन्न बनाया जाए जिससे वे आरक्षण के प्रावधानों के उल्लंघन को त्वरित हस्तक्षेप करके रोक सकें. हम यह भी मांग करते हैं कि आरक्षण के प्रावधानों के उल्लंघन को कानूनी अपराध घोषित किया जाए और इसके लिए सजा तय की जाए.
५. सामाजिक न्याय के आंदोलन और राजनीति में आंतरिक संतुलन लाने, बिखराव को रोकने और ज्यादा पिछड़े तबके की आशा और आकांक्षा के अनुरूप केंद्रीय स्तर पर मंडल लिस्ट में पिछड़ों और अति पिछड़ों की दो सूची बनाई जाए और बिहार की तरह उनके आरक्षण के प्रतिशत भी तय किये जाएँ.
६. मंडल आयोग की अनुशंसा के अनुरूप बिहार सरकार प्रत्येक जिले में ओबीसी छात्रावास बनवाए.
७. मंडल आयोग की अनुशंसा के अनुरूप भारत सरकार ओबीसी कर्मचारियों के लिए प्रोन्नति में आरक्षण के लिए आवश्यक कार्रवाई करे.
८. मंडल आयोग की अनुशंसा के अनुरूप बिहार सरकार जातिपरक पेशे से जुड़े हुए लोगों की सहकारी समिति बनाएँ और इस बात का खयाल रखें कि सहकारी समिति पूरी तरह पेशे से जुड़े लोगों द्वारा चलाया जाए.
९. मंडल आयोग की अनुशंसा के अनुरूप बिहार सरकार भूमि सुधार का व्यापक कार्यक्रम चलाये जिससे भूमिहीनों को ज़मीन मिल सके.
१०. हम बिहार सरकार से मांग करते हैं कि जिस तरह महाराष्ट्र सरकार ने कमिटी बनाकर बाबा साहेब भीम राव अम्बेदकर के सम्पूर्ण रचनावली को एक जगह एकत्रित करके उसका सस्ता संस्करण तैयार करवाया, उसी तरह बिहार सरकार डॉ राम मनोहर लोहिया की सम्पूर्ण रचनावली के सस्ता संस्करण का प्रकाशन करवाए. हम बिहार सरकार से मंडल आयोग की रिपोर्ट प्रकाशित करवाने की भी मांग करते हैं.
११. हम बिहार सरकार से मांग करते हैं कि पटना में सामाजिक न्याय के लिए उच्च कोटि का शोध संस्थान खुलवाए.
१२. मुसलमानों में अगड़ी मलिक जाति को पिछड़े वर्ग की सूची से हटाने के लिए बिहार राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग ने राज्य सरकार को अनुशंसा भेज दिया है किन्तु राज्य सरकार कोई निर्णय नहीं ले रही है. हम राज्य सरकार से मांग करते हैं कि वह अविलम्ब मलिक मुस्लिक को पिछड़ी जातियों की सूची से हटाये.
समाजवादी जनचेतना मंच, पटना (बिहार )
Courtesy: http://khalidanisansari.blogspot.in
0 comments
Posts a comment