
-यूसुफ़ अंसारी
प्रियंका (गांधी) वढेरा भी अब जनता दरबार लगाएंगी। दिल्ली में हर हफ़्ते लगने वाले इस दरबार में प्रियंका रायबरेली के लोगों की समस्याएं सुनेगीं। ये ख़बर तमाम टीवी चैनलों पर दिनभर प्रमुखता से दिखाई गयी। अगले दिन तमाम अख़बारो में ये भी ख़बर प्रमुखता से छापी। लेकिन अफ़सोस की बात ये है कि किसी ने इस दरबार के औचित्य पर सवाल नहीं उठाया। क्या सोनिया गांधी महारानी हैं? क्या प्रियंका गांधी राजकुमारी हैं? क्या रायबरेली की जनता सोनिया गांघी की प्रजा है? वहां के लोग सोनिया गांधी के ग़ुलाम हैं? वो जहां चाहेंगी उन्हें बुला लेंगी उनकी समस्याएं सुनने के लिए। ये कैसी लोकतांत्रिक व्यवस्था है जिस में लोगों को अपने चुने हुए प्रतिनिधि को अपनी समसयाएं सुनाने के लिए 500 किलोमीटर दूर जाना पड़े? एक सांसद को अपनो संसदीय क्षेत्र में जाकर लोगों की समस्याए सुननी चाहिए या उन्हें 500 किलोमीटर दूर अपने पास बुलाना चाहिए? ये तमाम सवाल उठने चाहिए थे लेकिन नहीं उठे। इन सवालों पर बहस होनी चाहिए।
सवाल सिर्फ़ प्रियंका गांधी के लगने वाले दरबार का नहीं है। सवाल ये है कि क्या लोकतंत्र में ऐसे “जनता दरबार” के लिए कोई जगह होनी चाहिए जिनमें सामंतवाद की झलक दिखे। हम ये दावा करते नहीं थकते कि हमारे देश में लोकतंत्र की जड़ें दिनों दिन मज़बूत हो रही हैं। लेकिन सच्चाई ये है कि लोकतंत्र की आड़ में हमने तमाम ऐसी परंपराओं को ज़िंदा रखा है जो गुज़रे ज़माने की सामंतवादी व्यवस्था की याद दिलाती हैं। लोकतंत्र में लगने वाले “जनता दरबार” भी सामंती व्यवस्था के ही अवशेष हैं। ये दरबार हमें राजा और प्रजा के दौर की याद ताज़ा कराते हैं। जनता दरबार लगाने में किसी भी पार्टी का कोई नेता किसी से कम नहीं रहना चाहता है।
आज़ादी के बाद इस तरह के “जनता दरबारों” की शुरुआत कब और किसने की, ये शोध का अच्छा विषय हो सकता है। लेकिन हाल के वर्षों पर नज़र डालने पर पता चलता है कि दरबार लगाने की शुरुआत राहुल गांधी ने की। 2004 में अमेठी से सांसद बनने के बाद राहुल गांधी ने दस जनपथ में हर शुक्रवार को “जनता दरबार” लगाना शुरु किया। शुरुआत में इसमें अमेठी से काफ़ी लोग आते थे। लोग अपना दुखड़ा सुनाते। राहुल गांधी उनके ज्ञापन लेते। समस्या के हल का आश्वासन देते। दरबार ख़त्म। कुछ दिन दरबार ठीक ठाक चला। फिर समस्याओं का पुनरावृति होने लगी। लोग शिकायत करने लगे कि राहुल ज्ञापन तो लेते हैं लेकिन उनकी समस्याएं सुनने के लिए उनके पास वक़्त नहीं होता। लोगों की शिकायत ये भी रही कि छोटी सा बात कहने के लिए अमेठी से दिल्ली आने-जाने में खर्च काफ़ी हो जाता है और काम होने की गारंटी भी नहीं होती। भीड़ कम होती गई। लोगों की शिकायते बढ़ती गयीं। लिहाजा “जनता दरबार” बंद कर दिया गया।
2005 में कुमार बिहार के मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने भी राजा-महाराजाओं की तरह “जनता दरबार” लगाना शुरु किया। उनकी देखा देखी उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी भी दरबार लगाने लगे। दोनों के बीच इस बात को लेकर मुक़ाबला रहता है कि कौन ज़्यादा लोगों की समस्याएं सुनता और सुलझाता है। इसी साल उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव ने में सूबे के सबसे नौजवान मुख्यमंत्री के रूप में सत्ता की बाग़डोर संभाली। उनसे उम्मीद कुछ बेहतर करने की थी। लेकिन वो भी “जनता दरबार” लगाकर लोगों की समस्याएं सुनने के मोह से खुद को बचा नहीं सके। क़रीब डेढ़ महीने दरबार ठीक ठाक चला। लेकिन इसमें लोगों की बढ़ती भीड़ और समस्याओं के अंबार लगने की वजह से इसे बंद करना पड़ा। मुख्यमंत्री को निर्देष देना पड़ा कि लोगों की समस्याए स्थानीय स्तर पर तहसील दिवस और थाना दिवस के मौक़े पर ही निपटाई जाएं। प्रियंका (गांधी) वढेरा भी अगर दरबार लगाती हैं तो देर सबेर उसका भी यही हश्र होगा।
सवाल ये उठता है कि आख़िर लोगों कि वो कौन सी समस्याएं जिनके समाधान के लिए लोगों को मुख्यमंत्री, सांसदों या विधायकों की सिफ़ारिश की ज़रूरत पड़ती है। या मुख्यमंत्रियों, सांसदों और विधायकों को “जनता दरबार” लगाने पड़ते हैं। दरअसल देश में प्रशासनिक व्यस्था पूरी तरह चरमरा गयी है। तहसील स्तर से लेकर सचिवालय तक रिश्वतखोरी और लाल फ़ीताशाही बोलबाला है। सामान्य से काम के लिए प्रशासनिक अधिकारी आम आदमी को इतना दौड़ाते हैं कि उसकी हिम्मत जवाब देने लगती है। ज़रा से काम के लिए आम आदमी को सरकारी दफ़तरों के बीसियों चक्कर लगाने पड़ते हैं। आमतौर पर लोगों को ऐसे कामों के लिए विधायकों, सासंदो और मुख्यमंत्री का दरवाज़ा खटखटाना पड़ता है जो ज़िला स्तर पर आसानी से हो सकते हैं। सरकारी दफ़तरों में आम लोगों को अक्सर जाति-प्रमाण पत्र, आय प्रमाण, राशन कार्ड, विधवा पेंशन, वृधा पेंशन जैसे मामूली कामों के लिए परेशान होते देखा जाता है। ऐसी शिकायतें लेकर लोग “जनता दरबारों” में भी पहुंचते हैं।
“जनता दरबार” चाहे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का हो, उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी का हो, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का रहा हो, राहुल गांधी का रहा हो या फिर प्रियंका (गांधी) वढेरा का लगने वाला हो। ये तमाम दरबार हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था को चिढ़ा रहे हैं। ये लोकतंत्र में सामंती प्रथा की जड़े मज़बूत करने की कोशिश हैं। ये दरबार विधायको, सांसदो और मुख्यमंत्रियों को राजा बनाते हैं। इन्हें चुनने वाली जनता जनार्दन को प्रजा बनने पर मजबूर करते हैं। ये बात सुनने मे ही अजीब लगती है कि जनता का चुना हुआ प्रतिनिधि ही दरबार लगाकर उनकी समस्याएं सुने। ये सब हमारे “सब चलता है” रवैये की वजह से चल रहा है। हम अपन देश में लोकतांत्रिक परंपराओं को मज़बूत करने के नाम पर सामंती परंपराओं को ही जाने अनजाने में मज़बूत कर रहे हैं। मीडिया भी सामंती सोच को महिमा मंडित करने का कोई मोक़ा नहीं चूकता।
15 अगस्त 1947 को देश आज़ाद हुआ। 26 जनवरी 1950 को देश का संविधान लागू हुआ। उस समय देश की 562 छोटी-बड़ी रियासतों के मिलाकर भारत राष्ट्र निर्माण हुआ। कहने को तो संविधान लागू होते ही देश में सामंतवादी व्यवस्था का अंत हो गया था। लेकिन सच्चाई ये है कि सामंतवाद की लाश को हमने “ममी ” बना कर रखा हुआ है। देश के किसी न किसी हिस्से में किसी न किसा रूप में आए दिन इसकी नुमाइश होती रहती है। दरअसल अपनी रियासतों के भारत में विलय के समय तमाम छोटी-बड़ी रियासतों के राजा-रजवाड़े कांग्रेस में शामिल होकर राजनीति आगए। सत्ता का हिस्सा बने। इन्होंने अपने इलाक़ों में अपनी धाक बनाए रखने के लिए सामंती व्यवस्था को क़यम रखा। राज-रजवाड़े ख़त्म हो गए लोकिन ये लोग आज भी ख़ुद को राजा, महाराजा कहलवाते हैँ। इनकी देखा देखी आज़ादी के बाद राजनीति मे आए लोगों ने भी जनता के साथ राजा महाराजाओं की तरह पेश आना शुरु कर दिया।
आज़ादी के बाद ये तय हो गया था कि इस देश में अब किसी का राजतिलक नहीं होगा बल्कि जनता की चुनी हुई सरकार काम करेगी। लेकिन सामंती सोच के हावी होने की वजह से प्रधानमंत्री की कुर्सी सिंहासन कहलाने लगी। हद तो तब हो गयी जब एक वक़्त में कांग्रेसियों ने “इंदिरा इज़ इंडिया” “इंडिया इज़ इंदिरा” का नारा लगा दिया था। तभी 1975 में “संपूर्ण क्रांति” के नारे के साथ जन नायक जयप्रकाश को ऐलान करना पड़ा “सिंहासन ख़ाली करो, कि जनता आती है।” 1989 में वीपी सिंह समर्थकों नें नारा दिया “राजा नहीं फ़कीर है, देश की तक़दीर है।” लेकिन 1996 और 1998 में बीजेपी ने अपनी सामंती सोच का परिचय़ देते हुए नारा दिया “राज तिलक की करो तैयारी, आ रहे हैं अटल बिहारी।” ये उदाहरण ये साबित करने के लिए काफ़ी हैं कि सामंत वादी ताक़ते देश के जनमानस में अभी भी सामंती व्यवस्था को कहीं न कहीं ज़िदा रखे हुए हैं।
सिंधिया परिवार की विजय राजे सिंधिया मरते दम तक “राजमाता” कहलाती रहीं। माधवराव सिधिया की मौत के बाद के बाद उनके सुपुत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया का “राजतिलक” हुआ। तमाम चैनलों में इसे लाइव दिखाया गया। लेकिन किसा ने ये सवाल नहीं उठाया कि लोकतांत्रिक देश में राजतिलक क्यों हो रहा है। हाल ही में गुजरात के गायकवाड़ राजघराने में भी राजतिलक को मीडिया नें खूब महिमा मंडित किया। फ़ारूक़ अब्दुल्ला, मुलायम सिंह यादव, ने जब अपनी पार्टियों को मिले जनादेश के आधार पर सत्ता की कमान अपने बेटों को सौंपी तो मीडिया ने इसे उमर अबदुल्ला और अखिलेश की “ताजपोशी” बताकर उनका महिमा मंडन किया। मंसूर अली ख़ा पटौदी की मौत के बाद जब सैफ़ अली ख़ान को 40 गांवों के सरपंचो के सामने बाक़ायदा “नवाब” की उपाधि दी गयी तो देश में किसी ने ये सावल नहीं उठा कि लोकतंत्र में इस सामंती व्यवस्था को क्यों ज़िंदा किया जा रहा है।
बहरहाल हमारे जन प्रतिनिधियों की सामंती सोच की वजह से ही लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी सांसदो और विधायकों के जनता दरबारों का चलन आम सा हो गया है। तमाम सामंता परंपराएं लोकतांत्रिक चोला पहन कर ज़िंदा हैं। 2004 में राहुल गांधी को अमेठी पर से चुनाव लड़ाकर सोनिया गांधी ने बाप की विरासत बेटे को सौंपी थी। शायद अब वो मां की विरासत बेटी को सौंपना चाहती हैं। 2014 में प्रियंका (गांधी) वढेरा उनकी जगह रायबरेली से उम्मीदवार हो सकती हैं। शायद इसी लिए उन्होंने प्रियंका को रायबरेली की जनता से सीधे जुड़ने का मौक़ा देने के लिए जनता दरबार लगाने की इजाज़त दी है। लेकिन राजकुमारी की तरह दिली में दरबार लगा कर समंती व्यवस्था को मज़बूत करने से बेहतर होगा कि प्रियंका रायबरेली जाकर सीधे जनता से जुड़े। जनता अब प्रजा बनकर दरबार मे हाज़री लगाने की बजाय अपने प्रतिनिधि को अपने बीच देखना चाहती है। लोकतंत्र जड़े भी इसी से मज़बूत होंगी।
Courtesy: http://yusufansari.in
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