यूसुफ़ अंसारी (Yusuf Ansari)

मोदी जी, पंडित नेहरू की एक और ग़लती सुधारिए, मुसलमान और ईसाई दलितों को इंसाफ़ दिलाइए
आदरणीय प्रधानमंत्री जी आदाब अर्ज़ है,
सबसे पहले तो आपको बधाई दे दूं कि आपने जम्मू कश्मीर को लेकर बहुत बड़ा और कड़ा फैसला किया। ऐसा करने की हिम्मत दिखाने के लिए आपको दिल की गहराइयों से बधाई। दूसरे ट्रिपल तलाक़ के खिलाफ़ आपने एक क़ानून बनाया। हालांकि कुछ प्रावधानों से असहमति के बावजूद आपके इस क़दम का समर्थन करता हूं और उम्मीद करता हूं कि मुस्लिम समुदाय के हित में मुसलमानों के निजी क़ानूनों मेंं जिन और सुधारों की ज़रूरत है उन पर भी आप इसी तरह सख़्ती से फैसला लेंगे।
झा ट्रिपल तलाक़ के ख़िलाफ़ क़ानून बनाकर आप ने राजीव गांधी की गलती को सुधारा है। वहींं अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करके आपने पंडित नेहरू की ग़लती को सुधारने का दावा किया है।
संविधान के अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करके जम्मू कश्मीर का विशेष दर्जा ख़त्म करने के पीछे आफने वजह बताई है कि इससे संविधान में दिए गए बराबरी के अधिकारों का उल्लंघन हो रहा था। राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में आपने इस बात का ज़िक्र किया है कि 1947 में पश्चिमी पाकिस्तान से आए क़रीब 5000 हिंदू परिवार जम्मू में रह रहे थे। उनको अनुच्छेद 370 की वजह से ही वहां की नागरिकता नहीं मिल पा रही थी। आपने इस तथ्य को स्थापित कर दिया है कि अनुच्छेद 370 पंडित नेहरू की एक बहुत बड़ी भूल थी। इसे सुधारा जाना ज़रूरी था। इस पर आपको कांग्रेस के भीतर तक से समर्थन मिल रहा है। इसके लिए आपको हार्दिक बधाई.
ट्रिपल तलाक़ के ख़िलाफ़ बनाए गए क़ानून के पीछे भी यही तर्क दिया गया था कि ट्रिपल तलाक मुस्लिम महिलाओं के साथ नाइंसाफी है और उनके संविधान में दिया गया पुरुषों के बराबर की बराबरी के अधिकार का उल्लंघन करती है। क़ानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने हमेशा कहा है कि ट्रिपल तलाक़ के मुद्दे को धार्मिक चश्मे से ना देखा जाए। बल्कि इस मुद्दे को लैंगिक समानता, महिला अधिकार और सशक्तिकरण के साथ ही संविधान में दिए गए बुनियादी अधिकारों के आधार पर हल किया जाए। ट्रिपल तलाक़ से संबंधित संसद और संसद के बाहर दिए गए उनके भाषणों का यही सार रहा है।
आदरणीय प्रधानमंत्री जी, पंडित नेहरू की एक ऐसी एक और बड़ी भूल है जिसकी वजह से देश में करोड़ों लोगों के साथ नाइंसाफी हो रही है। उनके अधिकारों का हनन किया जा रहा है। यह भूल संविधान के में दिए गए बराबरी और धार्मिक आजादी के अधिकारों का अतिक्रमण करती है। इस भूल को सुधारने के लिए लंबे समय से सामाजिक संघर्ष चल रहा है। पिछले 15 साल से मामला सुप्रीम कोर्ट में भी है। लेकिन केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट में अपना पक्ष रखने को तैयार नहीं है। कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने पूरे 10 साल इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट के सामने टालू रवैया अपनाया है। पिछले 5 साल से आपकी सरकार ने भी सुप्रीम कोर्ट में इस बारे में अपना पक्ष नही रखा है।
आप सोच रहे होंगे कि आख़िर पंडित नेहरू की वो कौन सी बड़ी ग़लती है और कौन लोग उससे प्रभावित हो रहे हैंं? मैं आपको बताता चलूं कि मामला संविधान के अनुच्छेद 341 का है। यह अनुच्छेद अनुसूचित जातियों के लोगों को उनकी आबादी के अनुपात में शिक्षण संस्थानों और सरकारी नौकरियों में आरक्षण सुनिश्चित करता है। 26 जनवरी 1950 को जब संविधान लागू हुआ तो उस समय अनुसूचित जाति धर्मनिरपेक्ष आधार पर तय होती थींं। यानी अनुसूचित जातियां कौन होगी इसे धर्म का कोई लेना देना नहीं था। लेकिन 10 अगस्त 1950 को तात्कालीन पंडित जवाहरलाल नेहरू की सरकार ने तात्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद के ज़रिए संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश 1950 लागू करके यह व्यवस्था कर दी कि सिर्फ हिंदू धर्म को मानने वाले ही अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल किए जाएंगे। सिख, बौद्ध, ईसाई और इस्लाम धर्म को मानने वाले इस दायरे से बाहर रहेंगे। इस आदर्श इस आदेश में इसकी कोई वजह नहीं बताई गई है।
राष्ट्रपति का यह आदेश संविधान में अनुच्छेद 14 के तहत दिए गए बराबरी के अधिकार का सीधा-सीधा उल्लंघन है। अनुच्छेद 14 कहता है कि सरकार अपने नागरिकों के बीच धर्म, जाति, नस्ल, जन्म स्थान या से लिंग के आधार पर किसी तरह का भेदभाव नहीं करेगी। राष्ट्रपति के इस आदेश से संविधान का अनुच्छेद 14 दलित आरक्षण के मामले में निष्प्रभावी हो या। इस पर उस समय सिखों के बड़े नेता ताराचंद में पंडित नेहरू पर वादाख़िलाफ़ी का आरोप लगाया। बताता चलूं कि संविधान सभा में सिखों को यह गारंटी दी थी हिंदू धर्म छोड़कर सिख धर्म अपनाने वालों का दलित स्टेटस बरकरार रहेगा। यानी धर्म बदलने से उन्हें आरक्षण के दायरे से बाहर नहीं किया जाएगा।
सिखों के तीखे विरोध के बाद 1956 में इस आदेश में संशोधन किया गया। सिख धर्म को हिंदू धर्म का ही एक पंथ क़रार देते हुए उसे हिंदू धर्म का हिस्सा बता दिया गया। इस तरह सिख धर्म अपना चुके दलितों को आरक्षण की व्यवस्था बदस्तूर जाने की जारी रहने की छूट मिल गई। इसके बाद 1990 में एक बार फिर इस आदेश में संशोधन किया गया और नव बौद्धों के लिए भी शिक्षा संस्थानों और सरकारी नौकरियों में आरक्षण का रास्ता खुल गया। राष्ट्रपति के इस आदेश के मौजूदा प्रावधान कहता है कि केवल हिंदू, सिख और बौद्ध धर्म मानने वाले ही अनुसूचित जातियों में शामिल किए जाएंगे। यानी आज भी यह आदेश संविधान के अनुच्छेद 14 का सीधा सीधा उल्लंघन कर रहा है।
1995 में तात्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने ईसाई धर्म अपना चुके दलितों को भी इसी श्रेणी में आरक्षण देने के लिए इस आदेश में संशोधन की कोशिश की थी। उस वक़्त बीजेपी ने इसका जबरदस्त विरोध किया था। लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी समेत बीजेपी के तमाम वरिष्ठ नेताओं ने तात्कालीन राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा से मिलकर सरकार को ऐसा करने से रोकने की गुजारिश की थी। उस वक्त यह तर्क दिया गया था कि ईसाई और इस्लाम धर्म भारतीय मूल के नहीं हैं। दोनों ही धर्म समानता के सिद्धांत पर आधारित हैंं। इनमें हिंदू समाज की तरह वर्ण व्यवस्था नहीं है। यह दोनों धर्म अपनाने के बाद दलित सामाजिक रूप से अछूत नहीं समझा जाता। इस लिए अनुसूचित जातियों के दायरे में उन्हें आरक्षण नहीं दिया जा सकता। उसके बाद से ही मुसलमान और ईसाई दलित अपने हक़ के लिए हर मोर्चे पर लड़ रहे हैं। लेकिन उन्हें कहीं इंसाफ नहीं मिल रहा।

दरअसल यह तर्क कई गंभीर सवाल खड़े करता है पहले सवाल यह है कि क्या अनुसूचित जातियों को आरक्षण उन्हें अछूत होने की वजह से लिया गया है? क्या हिंदू समाज आज भी वर्ण व्यवस्था को मान्यता देता है? संविधान के अनुच्छेद 17 के तहत छुआछूत को पूरी तरह खत्म किए जाने के बाद भी हिंदू समाज में छुआछूत की मान्यता है? अगर ऐसा है तो धर्म के नाम पर दलितों को बांटना उनके साथ और भी बड़ी नाइंसाफी है। जिस व्यक्ति के लिए सफाई का काम करने वाला व्यक्ति अछूत है। उसे इससे कोई फ़र्क़नहीं पड़ता कि उसका धर्म क्या है। उसके लिए रामकुमार भी अछूत होगा और अब्दुल रहीम भी। लिहाज़ा इस आधार पर मुसलमान और ईसाई दलितों को आरक्षण के दायरे में लाने से नहीं रोका जा सकता।
1958 का एक और कानून है जो यह कहता है कि कोई दलित अगर ईसाई या इस्लाम अपनाकर धर्म का लेता है तो उसे दलित होने के नाते मिलने वाली तमाम सुविधाएं तत्काल प्रभाव से मिलना बंद हो जाएंगी। लेकिन अगर वह फिर से ईसाई या इस्लाम धर्म छोड़कर हिंदू धर्म में वापस आ जाता है तो वह फिर से वह सारी सुविधाएं पाने का हक़दार होगा। यह क़ानून संविधान में दिए गए धार्मिक आज़ादी के मौलिक अधिकार का सीधा सीधा उल्लंघन है। एक तरफ़ संविधान लालच देकर धर्म परिवर्तन पर रोक लगाता है। वहींं संविधान की मूल भावना के ख़िलाफ़ जाकर इस देश में ऐसा कानून बनाया गया जो लोगों को किसी एक खास धर्म में रुकने पर मजबूर करता है। अगर लालच देकर किसी का धर्म बदलना संविधान के खिलाफ है तो लालच देकर किसी धर्म में रोके रखना भी संविधान की मूल भावना के खिलाफ माना जाएगा।
यहां अहम सवाल यह है कि मुसलमान और ईसाई दलितों यानी दलितों का वह वर्ग जो धर्म बदल कर मुसलमान या ईसाई हो गया है क्या वह संविधान में दिया गया बराबरी के अधिकार पाने का हक़दार है या नहीं। अगर संविधान के इसी बराबरी के अधिकार पर ट्रिपल तलाक़ को रोकने के लिए क़ानून लाया जा सकता है और अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करके जम्मू कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म किया जा सकता है तो फिर 10 अगस्त 1950 को राष्ट्रपति के हस्ताक्षर से जारी किए गए आदेश को भी निरस्त किया जा सकता है। राष्ट्रपति का यह आदेश संविधान के अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 25 का सीधा-सीधा उल्लंघन करता है। धर्म के आधार पर अपने नागरिकों के बीच भेदभाव करता है।
फ्रैंकलिन नाम के एक ईसाई दलित में मार्च 2004 में राष्ट्रपति के इस आदेश को चुनौती देते हुए इसे निरस्त करने की याचिका सुप्रीम कोर्ट में लगाई थी। इस याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से जवाब मांगा। केंद्र सरकार ने गोलमोल जवाब दिया। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से पूछा था कि क्या मुसलमान और ईसाई दलितों को दलित आरक्षण क्यों नहीं दिया जा सकता? डॉ मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार ने इस पर कोई जवाब नहीं देते हुए इस पर फ़ैसला सुप्रीम कोर्ट पर ही छोड़ दिया। यानी इस वक्त सरकार ने कहा था कि अगर सुप्रीम कोर्ट ऐसा करने का आदेश देता है तो सरकार इसमें बदलाव कर सकती है। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से दोबारा जवाब मांगा। लेकिन 2014 में अपनी विदाई तक यूपीए सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दाखिल नहीं किया। हैरानी की बात यह है कि पिछले 5 साल में आपकी सरकार ने भी सुप्रीम कोर्ट में अपना पक्ष नहीं रखा है। इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट में आगामी सितंबर में सुनवाई शुरू होगी।
प्रधानमंत्री जी आपको ज्ञात होगा कि मई 2007 में आई रंगनाथ मिश्रा आयोग की रिपोर्ट में इस राष्ट्रपति के इस आदेश को संविधान की मूल भावना के ख़िलाफ़ बताते हुए इसे निरस्त करने की सिफारिश की थी। आयोग ने साफ कहा है कि आरक्षण देने के मामले में धार्मिक भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए। इससे पहले 2006 में आई सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में मुसलमानों के एक तबके की हालत दलितों से बदतर बताई गई है। यह वही तबका है जो कालांतर में इस्लाम धर्म अपनाकर मुसलमान हो गया था। धर्म बदलने से उसे मस्जिद में जाकर नमाज पढ़ने की इजाजत तो मिली। लेकिन उसके सामाजिक और शैक्षिक स्थिति में कोई फ़र्क़ नहीं आया। दलितों को शिक्षा और नौकरियों में मिली विशेष छूट और आरक्षण की वजह से उसके समकक्ष दलित वर्ग समाज में काफी आगे बढ़ गया।
प्रधानमंत्री जी इस पत्र के माध्यम से मैं आपसे पूछना चाहता हूं कि क्या मुसलमान और ईसाई दलितों के साथ यह धार्मिक भेदभाव अनंत काल तक चलता रहेगा या इस पर कभी रोक लगेगी। अगर आप संविधान में दिए गए बराबरी के अधिकारों की दुहाई देकर मुसलमानों की मर्जी के बगैर ट्रिपल तलाक़ क़ानून बना सकते हैंं, घाटी के लोगों की मर्जी पूछे बगैर बगैर अनुच्छेद 370 निष्प्रभावी करके उन्हें मिला विशेष दर्जा ख़त्म कर सकते हैंं। तो फिर राष्ट्रपति का आदेश निरस्त करके संविधान के अनुच्छेद 341 को धार्मिक भेदभाव रहित बनाने के लिए कड़ा कदम क्यों नहीं उठा सकते?
प्रधानमंत्री जी मैं आपसे निवेदन करता हूं कि आप आप पंडित नेहरू की ऐतिहासिक ग़लती को सुधारने के लिए एक और कड़ा कदम उठाने की हिम्मत दिखाइए। धार्मिक आधार पर 70 साल से भेदभाव का शिकार हो रहे मुसलमान और दलित ईसाइयों को इंसाफ दिल आइए। देश के मुसलमान-ईसाई दलित और उनकी आने वाली पीढ़ियां इसके लिए हमेशा आपकी आभारी रहेंगी।
आपका अपना,
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